बृहदारण्यकोपनिषद & प्रलय के बाद ‘सृष्टि की उत्पत्ति’ का वर्णन करता उपनिषद

Dec 22,2022 | By Admin

बृहदारण्यकोपनिषद & प्रलय के बाद ‘सृष्टि की उत्पत्ति’ का वर्णन करता उपनिषद

बृहदारण्यकोपनिषद – Brihadaranyaka Upanishad

बृहदारण्यक उपनिषद (Brihadaranyaka Upanishad Pdf) शुक्ल यजुर्वेद की काण्व-शाखा के अन्तर्गत आता है। ‘बृहत’ (बड़ा) और ‘आरण्यक’ (वन) दो शब्दों के मेल से इसका यह ‘बृहदारण्यक’ नाम पड़ा है। इसमें छह अध्याय हैं और प्रत्येक अध्याय में अनेक ‘ब्राह्मण’ हैं। बृहदारण्यक उपनिषदों पर भर्तु प्रपंच ने भाष्य रचना की थी।

प्रथम अध्याय

इसमें छह ब्राह्मण हैं।

प्रथम ब्राह्मण

इस ब्राह्मण में प्रकृति के विराट रूप की तुलना ‘अश्वमेध यज्ञ’ के घोड़े से की गयी है। उसके विविध अंगों में सृष्टि के विविध स्वरूपों की कल्पना की गयी है। ‘अश्व’ शब्द शक्ति और गति का परिचायक हैं। यह सम्पूर्ण ब्राह्मण भी निरन्तर सतत गतिशील है। इस प्रकार वैदिक ऋषि अश्वमेध के अश्व के माध्यम से सम्पूर्ण सृष्टि को उस अज्ञात शक्ति द्वारा सतत गतिशील सिद्ध करते हैं। ‘अश्व’ उस राजा की शक्ति का प्रतीक है, जो चक्रवर्ती कहलाना चाहता हैं इसी भांति यह सम्पूर्ण सृष्टि उस परब्रह्म की शक्ति का प्रतीक है।

जिस प्रकार अश्वमेध यज्ञ में ‘अश्व’ की पूजा की जाती है और बाद में उसकी बलि चढ़ा दी जाती है, उसी प्रकार साधक इस सृष्टि की उपासना करता है, किन्तु अन्त में इस सृष्टि को नश्वर जानकर छोड़ देता है और इससे परे उस ‘ब्रह्म’ को ही अनुभव करता है, जो इस सृष्टि का नियन्ता है। जैसे लोकिक जगत में सभी ‘अश्व’ से परे उस ‘राजा’ को देखते हैं, जिसके यज्ञ का वह घोड़ा है तथा ‘राजा’ ही प्रमुख होता है, वैसे ही अध्यात्मिक जगत में वह ‘ब्रह्म’ है। उदाहरण के रूप में ऋषियों की इस कल्पना का अवलोकन करें- यह यज्ञीय अश्व या विश्वव्यापी शक्ति प्रवाह का सिर ‘उषाकाल’ है।

आदित्य (सूर्य) नेत्र हैं, वायु प्राण है, खुला मुख ‘आत्मा’ है, अन्तरिक्ष उदर है, दिन और रात्रि दोनों पैर हैं, नक्षत्र समूह अस्थियां हैं और आकाश मांस है। मेघों का गर्जन उसकी अंगड़ाई है और जल-वर्षा उसका मूत्र है और शब्द घोष (हिनहिनाना) वाणी है। वास्तव में ये उपमाएं उस विराट सृष्टि का केवल बोध कराती हैं। दूसरे शब्दों में ऋषिगण मूर्त प्रतीकों के द्वारा अमूर्त ब्रह्म की विराट संचेतना का दिग्दर्शन कराते हैं। वही उपासना के योग्य है।

दूसरा ब्राह्मण

इसमें सृष्टि के जन्म की अद्भुत कल्पना की गयी है। कोई नहीं जानता कि सृष्टि का निर्माण और विकास कैसे हुआ, किन्तु वैदिक ऋषियों ने अत्यन्त वैज्ञानिक ढंग से सृष्टि के विकास-क्रम को प्रस्तुत किया है। उनका कहना है कि सृष्टि के प्रारम्भ में कुछ नहीं था। केवल एक ‘सत्’ ही था, जो प्रलय-रूपी मृत्यु से ढका हुआ था। तब उसने संकल्प किया कि उसे पुन: उदित होना है। उस संकल्प के द्वारा आप: (जल) का प्रादुर्भाव हुआ। इस जल के ऊपर स्थूल कण एकत्र हो जाने से पृथ्वी की उत्पत्ति हुई।

उसके उपरान्त सृष्टि के सृजनकर्ता के श्रम-स्वरूप उसका तेज़ अग्नि के रूप में प्रकट हुआ। तदुपरान्त परमेश्वर ने अपने अग्नि-रूप के तृतीयांश को सूर्य, वायु और अग्नि तीन भागों में विभक्त कर दिया। पूर्व दिशा उसका शीर्ष भाग (सिर), उत्तर-दक्षिण दिशाएं उसका पार्श्व भाग औ द्युलोक उसका पृष्ठ भाग, अन्तरिक्ष उदर, पृथ्वी वक्षस्थल और अग्नि तत्त्व उस विराट पुरुष की आत्मा बने। यही प्राणतत्त्व कहलाया।

इसके बाद इस विराट पुरुष की इच्छा हुई कि अन्य शरीर उत्पन्न हों। तब मिथुनात्मक सृष्टि का निर्माण प्रारम्भ हुआ। नर-नारी, पशु और पक्षियों तथा जलचरों में नर-मादा के युग्म बने और उनके मिथुन-संयोग से जीवन का क्रमिक विकास हुआ। फिर इसके पालन के लिए अन्न से मन और मन से वाणी का सृजन हुआ। वाणी से ऋक्, यजु, साम का सृजन हुआ।

तीसरा ब्राह्मण

यहाँ प्रजापति-पुत्रों के दो वर्गों का उल्लेख है। एक देवगण, दूसरे असुर। देवगण संख्या में कम थे और असुरगण अधिक। दोनों में प्रतिस्पर्द्धा होने लगी। देवताओं ने निश्चय किया कि वे यज्ञ में ‘उद्गीथ’ (सामूहिक मन्त्रगान) द्वारा असुरों पर हावी होने का प्रयत्न करें। ऐसा विचार करके उन्होंने, पहले वाक् से, फिर प्राण, चक्षु, कान, मन, मुख प्राण आदि से उद्गीथ पाठ करने का निवेदन किया। सभी ने देवताओं के लिए ‘उद्गीथ’ किया, परन्तु हर बार असुरगणों ने उन्हें पाप से मुक्त कर दिया।

इस कारण वाणी, प्राण-शक्ति, चक्षु, कान या मन दूषित हो गये, किन्तु मुख में निवास करने वाले प्राण को वे दूषित नहीं कर सके। वहां असुरगण पूरी तरह पराजित हो गये। इस मुख में समस्त अंगों का रस होने के कारण इसे ‘आंगिरस’ भी कहा जाता है। इस प्राण-रूप देवता ने इन्द्रियों के समस्त पापों को नष्ट करके उन्हें शरीर की सीमा से बाहर कर दिया। तब उस प्राणदेवता ने वाग्देवता (वाणी), चक्षु, घ्राण-शक्ति, श्रवण-शक्ति, मन-शक्ति आदि से मृत्यु-भय को दूर कर दिया और फिर प्राण-शक्ति को भी मृत्यु-भय से दूर कर दिया। समस्त देवगुण प्राण में प्रवेश कर गये और अभय हो गये।

यह प्राण ही ‘साम’ है। वाक् ही ‘सा’ और प्राण ही ‘अम’ है। दोनों के सहयोग से ‘साम’ बनता है, अर्थात यदि प्राणतत्त्व से गायन किया जाये, तो वह जीवन-साधना को सफल बनाता है। वाणी और हृदयगत भावों का संयोग सामगान को अमर बना देता है। ऐसा गान करने वाला धन-धान्य व ऐश्वर्य से सम्पन्न होता है। उसे प्रतिष्ठा प्राप्त होती है।

चौथा ब्राह्मण

यहाँ ‘ब्रह्म’ की एकांगीता पर प्रकाश डाला गया है। ब्रह्म के सिवा सृष्टि में कोई दूसरा नहीं है। उसके लिए यही कहा जा सकता है- ‘अहस्मि, ‘अर्थात मैं हूं। इसीलिए ब्रह्म को अहम संज्ञक कहा जाता है। एकाकी होने के कारण वह रमा नहीं। तब उसने किसी अन्य की आकांक्षा की। तब उसने अपने को नारी के रूप में विभक्त कर दिया। ‘अर्द्धनारीश्वर’ की कल्पना इसीलिए की गयी है। पुरुष और स्त्री के मिलन से मानव-जीवन का विकास हुआ। प्रथम चरण में प्रकृति संकल्प करके सव्यं को जिस-जिस पशु-पक्षी आदि जीवों के रूप में ढालती गयी, उसका वैसा-वैसा रूप बनता गया और उसी के अनुसार उनके युग्म बने और मैथुनी सृष्टि से जीवन के विविध रूपों का जन्म हुआ।

सबसे पहले ब्रह्म ‘ब्राह्मण’ वर्ण में था। पुन: उसने अपनी रक्षा के लिए क्षत्रिय वर्ण का सृजन किया। फिर उसने वैश्य वर्ण का सृजन किया और अन्त में शूद्र वर्ण का सृजन किया और उन्हीं की प्रवृत्तियों के अनुसार उनके कार्यों का विभाजन किया। कर्म का विस्तार होने के उपरान्त ‘धर्म’ की उत्पत्ति की। धर्म से श्रेष्ठ कुछ भी नहीं हे। धर्म की सत्या है। इसी ने ‘आत्मा’ से परिचय करायां यह ‘आत्मा’ ही समस्त जीवों को आश्रय प्रदाता है। यज्ञ द्वारा इसी ‘आत्माय को प्रसन्न करने से देवलोक की प्राप्ति होती है।

पांचवां ब्राह्मण

परमापिता ने सृष्टि का सृजन करके क्षुधा-तृप्ति के लिए चार प्रकार के अन्नों का सृजन किया। उनमें एक प्रकार का अन्न सभी के लिए, दूसरे प्रकार का अन्न देवताओं के लिए, तीसरे प्रकार का अन्न अपने लिए तथा चौथे प्रकार का पशुओं के लिए वितरित कर दिया। धरती से उत्पन्न अन्न सभी के लिए है। उसे सभी को समान रूप से उपभोग करने का अधिकार है। हवन द्वारा दया जाने अन्न देवताओं के लिए है। पशुओं को दिया जाने वाला खाद्यान्न दूध उत्पन्न करता है। यह दूध सभी के पीने योग्य हे। शीघ्र उत्पन्न हुए बचच् को स्तनपान से दूध ही दिया जाता है।

कहा गया कि एक वर्ष तक दूध से निरन्तर अग्निहोत्र करने पर मृत्यु भी वश में हो जाती हे। उस पुरुष ने तीन अन्नों का चयन अपने लिए किया। ये तीन अन्न-‘मन, ‘वाणी’ और ‘प्राण’ हैं वाणी द्वारा पृथ्वीलोक को, मन द्वारा अन्तरिक्षलोक को और प्राण द्वारा स्वर्गलोक को पाया जा सकता है। वाणी ॠग्वेद, मन यजुर्वेद और प्राण सामवेद है। जो कुछ भी जानने योग्य है, वह मन का स्वरूप है। वाणी ज्ञान-स्वरूप होकर जीवात्मा की रक्षा करती है और जो कुछ अनजाना है, वह प्राण-स्वरूप है। इस विश्व में जो कुछ भी स्वाध्याय या ज्ञान है, वह सब ‘ब्रह्म’ से ही एकीकृत है। वस्तुत: यह सूर्य निश्चित रूप से प्राण से ही उदित होता है और प्राण में ही समा जाता है।

छठा ब्राह्मण

इस संसार में जो कुछ भी है, वह नाम, रूप और कर्म, इन तीनों का ही समुदाय है। इन नामों का उपादान ‘वाणी’ हैं। समस्त नामों की उत्पत्ति इस वाणी द्वारा ही होती है। समस्त रूपों का उपादान ‘चक्षु’ है। समस्त सूर्य इस चक्षु से ही उत्पन्न होते हैं। समस्त रूपों को धारण करने से चक्षु ही इन रूपों का प्राण है, ‘ब्रह्म’ है। समस्त कर्मों का उपादान यह ‘आत्मा’ है। समस्त कर्म शरीर से ही होते हैं और उसकी प्रेरणा शरीर में स्थित यह आत्मा ही देती है। यह ‘आत्मा’ ही सब कर्मों का ‘ब्रह्म’ है। आत्मा द्वारा ही नाम, रूप और कर्म उत्पन्न हुए हैं। अत: ये तीनों अलग होते हुए भी एक आत्मा ही हैं। यह आत्मा सत्य से आच्छादित है। यही अमृत है। प्राण ही अमृत-स्वरूप है। नाम और रूप ही सत्य हैं। अमृत और सत्य से ही प्राण आच्छन्न है, ढका हुआ है, अज्ञात है।

दूसरा अध्याय

दूसरे अध्याय में भी छह ब्राह्मण हैं। प्रथम ब्राह्मण में डींग हांकने वाले, अर्थात बहुत बढ़-चढ़कर बोलने वाले गार्ग्य बालाकि ऋषि एवं विद्वान राजा अजातशत्रु के संवादों द्वारा ‘ब्रह्म’ व ‘आत्मतत्त्व’ को स्पष्ट किया गया है। दूसरे और तीसरे ब्राह्मण में ‘प्राणोपासना’ तथा ब्रह्म के दो मूर्त्त-अमूर्त्त रूपों का वर्णन किया गया है। इन्हें ‘साकार’ और ‘निराकार’ ब्रह्म भी कहा गया है। चौथे ब्राह्मण में याज्ञवल्क्य-मैत्रेयी संवाद हैं। पांचवें और छठे ब्राह्मण में ‘मधुविद्या’ औ उसकी परम्परा का वर्णन है।

प्रथम ब्राह्मण

इस ब्राह्मण में ‘ब्रह्मज्ञान’ का उपदेश देने एक बार गर्ग गोत्रीय बालाकि नामक ऋषि वेद प्रवक्ता काशी नरेश अजातशत्रु के दरबार में पहुंचते हैं। वहां वे अहंकारपूर्ण वाणी में ‘ब्रह्मज्ञान’ का उपदेश देने की बात करते हैं इस पर विद्वान् अजातशत्रु बदले में उन्हें एक सहस्त्र गौएं प्रदान करने की बात करते हैं, परन्तु बालाकि मुनि अजातशत्रु को सन्तुष्ट नहीं कर पाते।

दूसरा ब्राह्मण

यहाँ विराट ‘ब्रह्माण्ड’ और ‘मानव’ की समानता का बोध कराया गया है। जो ब्राह्मण में है, वही मानव-शरीर में विद्यमान है। कहा भी है- यद् पिण्डे तत्त्ब्रह्माण्डे, अर्थात जो कुछ भी स्थूल और सूक्ष्म रूप से इस शरीर में विद्यमान है, वही इस विराट ब्रह्माण्ड में स्थित है। वास्तव में इस विशाल सृष्टि का अतिसूक्ष्म रूप परमात्मा ने इस मानव-शरीर में स्थापित किया है और वह स्वयं भी इस शरीर में प्राण-शक्ति के रूप में विराजमान है।

इस ब्राह्मण के प्रारम्भ में ही कहा गया है कि जिसने आधान (आधार), प्रत्याधान (शीर्ष), स्थूणा (खूंटा, अर्थात अन्न और जल से प्राप्त होने वाली जीवनी-शक्ति) और दाम (बांधने की रस्सी, अर्थात वह नाल जिससे शिशु माता के साथ जुड़ा रहता है) को समझ लिया, वह परमज्ञान को प्राप्त कर लेता है। यहाँ शिशु के रूपक द्वारा ‘प्राण’ को शिशु का रूप बताया गया है। यह शिशु अथवा ‘प्राण’ मानव-शरीर का आधार हैं ‘शीर्ष’, अर्थात पांचों ज्ञानेन्द्रियों- आंख, कान, नाक, जिह्वा और मन-प्रत्याधान हैं। श्वास की स्थूणा है और दाम ‘अन्न’ है।

प्राणतत्त्व का इस शरीर से गहरा सम्बन्ध है। इसके बिना शरीर की सक्रियता अथवा गतिशीलता की कल्पना ही नहीं की जा सकतीं इसीलिए इसे शरीर का आधार माना गया है। ‘शीर्ष’ ही समस्त ज्ञानेन्द्रियों का नियन्त्रण करता है और ‘श्वास’ ही प्राण की स्थूणा शक्ति है। प्राण का आधार ‘अन्न’ है। शिशु की ऊपरी पलक ‘द्युलोक’ है और निचली पलक ‘पृथ्वीलोक’ है। पलकों का झपकना रात और दिन है।

आंखों के लाल डोरे रुद्र अथवा अग्नितत्त्व है। नेत्रों का गीलापन जलतत्त्व है, सफ़ेद भाग आकाश है, काली पुतली पृथ्वी-तत्त्व है और पुतली के मध्य स्थित तारा सूर्य है, आंखों के छिद्र वायुतत्त्व हैं। इस रहस्य को समझने वाला साधक जीवन में कभी अभावग्रस्त नहीं होता। हृदय-रूपी आकाश या प्राण-रूपी तट पर ‘सप्त ऋषि’ विद्यमान हैं दो कान, दो नेत्र, दो नासिका छिद्र और एक रसना, ये सात ऋषि हैं। इनके साथ संवाद करने वाली आठवीं ‘वाणी’ है। ये दोनों कान गौतम और भारद्वाज ऋषि हैं ये दोनों नेत्र ही विश्वामित्र और जमदग्नि ऋषि हैं, दोनों नासिका छिद्र वसिष्ठ और कश्यप हैं और वाक् ही सातवें अत्रि ऋषि हैं। जो ऐसा जानता है, वह समस्त अन्न भोगों का स्वामी होता है।

तीसरा ब्राह्मण

इस ब्राह्मण में ‘ब्रह्म’ कें दो रूपों-‘मूर्तय और ‘अमूर्त,’ अर्थात ‘व्यक्त’ और ‘अव्यक्त’ स्वरूपों का वर्णन किया गया है। जो मूर्त या व्यक्त है, वह स्थिर, जड़ और नाशवान है, मारणधर्मा है, किन्तु जो अमूर्त या अव्यक्त है, वह सूक्ष्म, अविनाशी और सतत गतिशील है। आदित्य मण्डल में जो विशिष्ट तेजस्-स्वरूप पुरुष है, वह अमर्त्य और अव्यक्त भूतों का सार-रूप है। वायु और अन्तरिक्ष भी अव्यक्त और अमर्त्य हैं।

वे निरन्तर गतिशील हैं। मानव-शरीर में आकाश और प्राणतत्त्व से भिन्न जो पृथ्वी, जल, अग्नि का अंश विद्यमान है, वह मूर्त और मरणधर्मा है। नेत्र इस सत् का सार-रूप है। ‘ब्रह्म’ के लिए सर्वोत्तम उपदेश ‘नेति-नेति’ है, अर्थात उस परब्रह्म के यथार्थ रूप को पूर्ण रूप से कोई भी आज तक नहीं जान सका। उसे ‘सत्य’ नाम से जाना जाता हैं यह प्राण ही निश्चय रूप से ‘सत्य’ है और वही ‘ब्रह्म’ का सूक्ष्म रूप हैं इसी में समस्त ब्रह्माण्ड समाया हुआ है।

चौथा ब्राह्मण

इस ब्राह्मण में, महर्षि याज्ञवल्क्य व उनकी धर्मपत्नी मैत्रेयी में ‘आत्मतत्त्व’ को लेकर संवाद है। एक बार महर्षि याज्ञवल्क्य ने गृहस्थ आश्रम छोड़कर वानप्रस्थ आश्रम में जाने की इच्छा व्यक्त करते हुए अपनी पत्नी से कहा कि वे अपना सब कुछ उसमें और अपनी दूसरी पत्नी कात्यायनी में बांट देना चाहते हैं। इस पर मैत्रेयी ने उनसे पूछा कि क्या इस धन-सम्पत्ति से अमृत्व की आशा की जा सकत है? क्या वे उसे अमृत्व-प्राप्ति का उपाय बतायेंगे?

इस पर महर्षि याज्ञवल्क्य ने कहा-‘हे देवी! धन-सम्पत्ति से अमृत्व प्राप्त नहीं किया जा सकता। अमृत्व के लिए आत्मज्ञान होना अनिवार्य है; क्योंकि आत्मा द्वारा ही आत्मा को ग्रहण किया जा सकता है।’उन्होंने कहा-‘हे मैत्रेयी! पति की आकांक्षा-पूर्ति के लिए, पति को पत्नी प्रिय होती है। इसी प्रकार पिता की आकांक्षा के लिए पुत्रों की, अपने स्वार्थ के लिए धन की, ज्ञान की, शक्ति की, देवताओं की, लोकों, की और परिजनों की आवश्यकता होती है। इसी प्रकार, ‘आत्म-दर्शन’ के लिए श्रवण, मनन और ज्ञान की आवश्यकता होती है। कोई किसी को आत्म-दर्शन नहीं करा सकता। इसका अनुभव स्वयं ही अपनी आत्मा में करना होता है।’

उन्होंने अनेक दृष्टान्त देकर इसे समझाया-‘हे देवी! जिस प्रकार ‘जल’ का आश्रय समुद्र है, ‘स्पर्श’ का आश्रय त्वचा है, ‘गन्ध’ का आश्रय नासिका है, ‘रस’ का आश्रय जिह्वा है, ‘रूपों’ का आश्रय चक्षु हैं, ‘शब्द’ का आश्रय श्रोत्र (कान) हैं, सभी ‘संकल्पों’ का आश्रय मन है, ‘विद्याओं का आश्रय हृदय है, ‘कर्मों’ का आश्रय हाथ हैं, समस्त ‘आनन्द’ का आश्रय उपस्थ (इन्द्री) है, ‘विसर्जन’ का आश्रय पायु (गुदा) है, समस्त ‘मार्गो’ का आश्रय चरण हैं और समस्त ‘वेदों’ काक आश्रय वाणी है, उसी प्रकार सभी ‘आत्माओं’ का आश्रय ‘परमात्मा’ है।’

उन्होंने आगे बताया-‘हे मैत्रेयी! जिस प्रकार जल में घुले हुए नमक को नहीं निकाला जा सकता, उसी प्रकार उस महाभूत, अन्तहीन, विज्ञानघन परमात्मा में सभी आत्मांए समाकर विलुप्त हो जाती हैं। जब तक ‘द्वैत’ का भाव बना रहता है, तब तक वह परमात्मा दूरी बनाये रखता है, किन्तु ‘अद्वैत’ भाव के आते ही आत्मा, परमात्मा में लीन हो जाता है, अर्थात उसे अपनी आत्मा से ही जानने का प्रयत्न करो।’

पांचवां ब्राह्मण

इस ब्राह्मण में ‘मधुविद्या, ‘अर्थात’ आत्मविद्या’ का वर्णन है। इस मधुविद्या का उपदेश ऋषि आथर्वण दध्यंग ने सर्वप्रथम अश्विनीकुमारों को दिया था। मन्त्र दृष्ट ने कहा कि परब्रह्म ने सर्वप्रथम दो पैर वाले और चार पैर वाले शरीरों का निर्माण किया था। उसके पश्चात वह विराट पुरुष उन शरीरों में प्रविष्ट हो गया। उसने कहा कि शरीरधारी को उसके यथार्थ रूप में प्रकट करने के लिए वह पुरुष शरीरधारी के प्रतिरूप जल, वायु, आकाश आदि की भांति हो जाता है। वह परमात्मा एक होते हुए भी माया के कारण अनेक रूपों वाला प्रतिभासित होता है।

वस्तुत: समस्त विषयों का अनुभव करने वाला ‘आत्मा’ ही ‘ब्रह्मरूप’ है। यह समस्त पृथ्वी, समस्त प्राणी, समस्त जल, समस्त अग्नि, समस्त वायु, आदित्य, दिशाएं, चन्द्रमा, विद्युत, मेघ, आकाश, धर्म, सत्य और मनुष्य मधु-रूप हैं, अर्थात आत्मरूप है। सभी में वह विनाशरहित, तेजस्वी ‘आत्मा’ विद्यमान है। वही सर्वव्यापी परमात्मा का सूक्ष्म अंश है। यह ‘आत्मा’ समस्त जीवों का मधु है और जीव इस आत्मा के मधु हैं। इसी में वह तेजस्वी वर अविनाशी पुरुष ‘परब्रह्म’ के रूप में स्थित है। वह ‘ब्रह्म’ कारणविहीन, कार्यविहीन, अन्तर और बाहर से विहीन, अमूर्त रूप है। इसी ब्रह्म स्वरूप ‘आत्मा’ को जानने अथवा इसके साथ साक्षात्कार करने का उपदेश सभी वेदान्त देते हैं अत: मधु’प उस आत्मा का चिन्तन करके ही, परमात्मा तक पहुंचना चाहिए।

छठा ब्राह्मण

इस ब्राह्मण में ‘मधुकाण्ड’ की गुरु-शिष्य परम्परा का वर्णन किया गया है। यहाँ केवल ज्ञान प्राप्त करने वाले ऋषियों की परम्परा का उल्लेख किया गया है। उस सर्वशक्तिमान परमात्मा की जिस-जिस ने अनुभूति की, उसे उसने उसी प्रकार अपने शिष्य को दे दिया। किसी ने भी उस पर एकाधिकार करने का प्रयत्न नहीं किया। इस परम्परा में कतिपय प्रसिद्ध ऋषि गौपवन, कौशिक, गौतम, शाण्डिल्य, पराशर, भारद्वाज, आंगिरस, आथर्वण, अश्विनीकुमार आदि का उल्लेख है।

तीसरा अध्याय

तीसरे अध्याय में नौ ब्राह्मण हैं। इनके अन्तर्गत राजा जनक के यज्ञ में याज्ञवल्क्य ऋषि से विभिन्न तत्त्ववेत्ताओं द्वारा प्रश्न पूछे गये हैं और उनके उत्तर प्राप्त किये गये हैं। गार्गी द्वारा बार-बार प्रश्न पूछ जाने पर याज्ञवल्क्य उसे अपमानित करके रोक देते हैं। पुन: सभा की अनुमति से उसके द्वारा प्रश्न पूछे जाते हैं। वह उनसे अपनी पराजय स्वीकार कर लेती है। इसी प्रकार शाकल्य ऋषि अतिप्रश्न करने के कारण अपमानित होते हैं। इसी का उल्लेख प्रश्नोत्तर रूप में यहाँ किया गया है। इनमें भारतीय ‘तत्त्व-दर्शन’ का निचोड़ प्राप्त होता है।

प्रथम ब्राह्मण

एक बार विदेहराज जनक ने एक महान यज्ञ किया। उस यज्ञ में कुरु औ पांचाल प्रदेशों के बहुत से विद्वान पधारे। राजा ने यह जानने के लिए कि इनमें सर्वोत्कृष्ट विद्वान कौन है, अपनी गौशाला से एक सहस्त्र स्वस्थ गौओं के सीगों में लगभग 100 ग्राम स्वर्ण बंधवा दिया और सभी को सम्बोधित करके कहा कि जो भी सर्वाधिक ब्रह्मनिष्ठ है, वह इन गौओं को ले जाये। उन ब्राह्मणों में से किसी का भी साहस नहीं हुआ, तो महर्षि याज्ञवल्क्य ने अपने एक शिष्य सामश्रवा से उन गौओं को हांक ले जाने के लिए कहा। इससे अन्य ब्राह्मण क्रोधित हो उठे और चीखने-चिल्लाने लगे कि यह हमसे सर्वश्रेष्ठ कैसे हे? तब उनके मध्य शास्त्रार्थ हुआ। सबसे पहले यज्ञ के होता अश्वल ने प्रश्न किया और याज्ञवल्क्य ने उसके प्रश्नों का उत्तर दिया-

अश्वल-‘हे मुनिवर! जब यह सारा विश्व मृत्यु के अधीन है, तब केवल यजमान ही किस प्रकार मृत्यु के बन्धन का अतिक्रमण कर सकता है?’

याज्ञवल्क्य— होता नामक ऋत्विक वाक् (वाणी) और अग्नि है। वह इन दोनों शक्तियों के द्वारा मृत्यु को पार कर सकता है। वही मुक्ति और अतिमुक्ति है। इसका भाव यही है कि जो ‘होता’ वाणी द्वारा उद्भूत मन्त्रों और यज्ञ की अग्नि के द्वारा परम ‘ब्रह्म’ का ध्यान करते हुए ‘नाद-ध्वनि’ उत्पन्न करता है, वह उस ‘नाद-ध्वनि’ (नाद-ब्रह्म) द्वारा मृत्यु को भी जीत लता है। ‘होता’ यज्ञ का पुरोहित होता है, वह यज्ञ में वाणी द्वासरा अक्षर-ब्रह्म की ही साधना करता है।

उसकी साधना करने वाला सिद्ध पुरोहित मृत्यु को भी अपने वश में करने वाला होता है। ऋषि का संकेत उसी ओर है। अश्वल—’हे मुनिवर! समस्त दृश्य जगत दिन और रात्रि के अधीन है। इसका अतिक्रमण कैसे किया जा सकता है, अर्थात इस पर विजय का उपाय क्या है?’

याज्ञवल्क्य—’ऋत्विक नेत्र और सूर्य के माध्यम से मुक्त हो सकता है, अर्थात रात और दिन पर विजय पा सकता है। अध्वर्यु ही यज्ञ का चक्षु है। अत: नेत्र ही आदित्य है और वही अध्वर्यु है। मुक्ति और अतिमुक्ति भी वही है।’ इसका अर्थ यह है कि अध्वर्यु ऋत्विक का कार्य विधिवत मन्त्रोच्चार करते हुए यज्ञ में आहुति देना होता है।

दूसरे, ‘चक्षु’ का तात्पर्य भौतिक चक्षुओं से न होकर मन की आंखों से है। एक योगी मन की इन्हीं आंखों से ‘इड़ा’ (चन्द्र) और पिंगला (सूर्य) नाड़ियों का भेदन करके सुषुम्ना में लीन होकर जीवन्मुक्त हो जाता है। उसे रात का अन्धकार और दिन का प्रकाश एक समान ही प्रतीत होता है। यह एक योगिक प्रक्रिया है।

अश्वल—’हे मुनिवर! सब कुछ ‘कृष्ण पक्ष’ और ‘शुक्ल पक्ष’ के अधीन है। फिर यजमान किस प्रकार इनसे मुक्त हो सकता है?’

याज्ञवल्क्य—’ऋत्विज्, उद्गाता, वायु और प्राण के माध्यम से मुक्त हो सकता है। उद्गाता को यज्ञ का प्राण कहा गया है तथा यह प्राण ही वायु और उद्गाता है। यही मुक्त और अतिमुक्ति का स्वरूप हैं।’ यहाँ इन दोनों पक्षों का तात्पर्य स्वर-विज्ञान पर आधारित है। प्राणायाम में प्राणवायु की गति को सिद्ध करके मन को शान्त किया जाता है। उसके द्वारा मृत्यु की गति भी रोकी जा सकती है। जो योगी प्राणायाम के अभ्यास से श्वास को जीत लेता है, उसके समस्त भौतिक विकार नष्ट हो जाते हैं। इन विकारों का नष्ट होना ही मृत्यु पर विजय पाना है।

अश्वल—’हे ऋषिवर! यह जो अन्तरिक्ष है, निरालम्ब, अर्थात आधारहीन प्रतीत होता है। फिर यजमान कैसे स्वर्गरोहण करता है?’

याज्ञवल्क्य—’ऋत्विज, ब्रह्मा और चन्द्रमा के द्वारा स्वर्गारोहण करता है। मन ही चन्द्रमा है। मन ही यज्ञ का ब्रह्मा है। मृक्ति, अतिमुक्ति भी वही है।’यहाँ मन और मन में उठे विचारों की अत्यन्त तीव्र और अनन्त गति की ओर संकेत है। मन और मन के विचारों को घनीभूत करके कुछ भी प्राप्त किया जा सकता है। उसे किसी आधार की आवश्यकता नहीं होती। अश्वल—’होता ऋत्विक आज यज्ञ में कितनी ऋचाओं का उपयोग करेगा?’

याज्ञवल्क्य-‘तीन ऋचाओं का।’

अश्वल-‘उन ऋचाओं के नाम क्या है?’

याज्ञवल्क्य-‘पहली पुरोनुवाक्या (यज्ञ से पहले), दूसरी याज्मा (यज्ञ के समय उच्चरित) और तीसरी शस्या (यज्ञ के बाद की स्तुतियां) है।’

अश्वल-‘इनसे किसे जीता जाता है?’

याज्ञवल्क्य-‘समस्त प्राणि समुदाय को।’

अश्वल-‘आज यज्ञ में कितनी आहुतियां डाली जायेगी?’

याज्ञवल्क्य-‘तीन।’

अश्वल-‘तीन कौन-कौन सी?’

याज्ञवल्क्य-‘पहली वह, जो होम करने पर प्रज्ज्वलित होती है। दूसरी वह, जो होम करने पर शब्द करती है और तीसरी वह, जो होम करने पर पृथ्वी में समा जाती है। इनसे यज्ञमान ‘देवलोक’, ‘पितृलोक’ और ‘मृत्युलोक’ को जीत लेता है।

अश्वल-‘हे मुनिवर! आज उद्गाता इस यज्ञ में कितने स्तोत्रों का गायन करेगा?’

याज्ञवल्क्य-‘तीन स्तोत्रों का। वे तीन स्तोत्र हैं- पुरोनुवाक्या, याज्या और शस्या।’

अश्वल-‘इनमें से कौन मनुष्य के शरीर में रहने वाले हैं?’

याज्ञवल्क्य-‘पुरोनुवाक्या से पृथ्वी लोक पर, याज्या से अन्तरिक्ष लोक पर और शस्या से द्युलोक पर विजय प्राप्त की जा सकती है।’

याज्ञवल्क्य के उत्तर सुनकर अश्वल चुप हो गये और ब्रह्मऋषि की श्रेष्ठता स्वीकार करके पीछे हट गये। तब ऋषि ने दूसरे ब्राह्मणों की ओर दृष्टिपात किया कि अब वे प्रश्न पूछ सकते हैं।

दूसरा ब्राह्मण

इस ब्राह्मण में जरत्कारू के पुत्र आर्तभाग और ऋषि याज्ञवल्क्य के मध्य हुए शास्त्रार्थ का वर्णन है।

आर्तभाग—’ऋषिवर! ग्रहों और अतिग्रहों की संख्या कितनी है? वे ग्रह और अतिग्रह कौन-कौन से हैं?’

याज्ञवल्क्य—’ग्रह आठ हैं और आठ ही अतिग्?

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