सनातन धर्म के अट्ठारह स्मृति ग्रन्थ बताते है जीने का सही ढंग
किसी भी समाज व्यवस्थित संचालन के लिए नियम और विधि-निषेध ज़रूरी होते हैं। राजा या शासन द्वारा निर्धारित नियम अपनी जगह महत्त्व रखते हैं, लेकिन समाज को सही मार्ग पर चलाने के लिए उसके विचारशील और ज्ञानीजन द्वारा भी धर्म को आधार मानकर कुछ नियम निर्धारित किये जाते हैं। ये नियम राजा के नियमों से अधिक प्रभावशील होते हैं। राज नियमों का उल्लंघन व्यक्ति जितनी आसानी से कर देता है, धर्म द्वारा निर्धारित नियमों का उल्लंघन उतनी आसानी से नहीं कर पाते ।
सनातन धर्म के साहित्य में “स्मृति” ग्रंथों का बहुत महत्वपूर्ण स्थान है। ये ग्रन्थ वास्तव में धर्मसंहिता या जीवन संहिता हैं। इनमें वर्ण, राजधर्म, समाजधर्म आदि के साथ ही उन विधि-निषेधों का वर्णन किया गया है, जिनका पालन करना प्रत्येक सनातनधर्मी के लिए लौकिक और पारलौकिक उद्देश्यों को प्राप्त करने की दिशा में लाभकारी है।
समय-समय पर देश, काल और परिस्थिति के अनुसार स्मृति ग्रंथों में आवश्यकता के अनुसार यथोचित संशोधन, परिवर्तन और परिवर्धन किये जाते रहे हैं। अनेक स्मृतियों को युग की आवश्यकता के अनुसार फिर से लिखा गया है। मध्ययुग की भयावह सामाजिक-राजनितिक और नैतिक स्थितियों को सामने रखकर अनेक स्मृतियों में इस प्रकार संशोधन और परिवर्तन किये गये, ताकि लोग विधर्मी होने से बचें। उनके लिए धर्म परिवर्तन करना आसान नहीं हो। वे धर्म परिवर्तन के लिए दिए जाने वाले प्रलोभनों आदि में नहीं फँसें। अपने धर्म में ही रहकर धार्मिक मान्यताओं का पालन करते हुए परिवार का पालन करें।
इसमें सबसे अधिक समझने वाली बात यह है, किमूल स्मृतियों की रचना उस समय की परिस्थितियों के अनुसार की गयी थी। इनमें लिखित सभी बातें वार्तमान में भी लागू करना न तो उचित है और न संभव। लेकिन इन्हें पूरी तरह नकारा भी नहीं जा सकता। हमें इन ग्रंथों और उनकी विषय-वस्तु का ज्ञान होना ही चाहिए, ताकि हम भविष्य की ओर बढ़ते हुए अपने अतीत से भी जुड़े रहें। जो भी समाज, संस्कृति और देश अपने अतीत से कट जाता है, उसका कोई भविष्य नहीं होता।
कोई भी समाज बिना नियमों और विधि-निषेध के चलना संभव नहीं है। समय-समय पर इनमें बदलाव अवश्य होते हैं, लेकिन किसी न किसी रूप में इनका अस्तित्व रहता है, तभी समाज का ठीक से संचालन होता है। स्मृतियों की कुल संख्या 18 है, जिन्हें अलग-अलग समय पर विभिन्न ऋषियों ने लिखा।
ये स्मृतियाँ हैं-
1। मनुस्मृति। इसकी रचना वैवस्वत मनु ने की थी। इसमें जीवन से जुड़े विभिन्न पक्षों तथा समाज के सुचारू संचालन के विषय में विस्तार से व्यवस्थित वर्णन किया गया है। इसे हिन्दू-जीवन की आचार संहिता भी कहते हैं। समय के अनुसार इसमें वर्णित अनेक बातें उनके मूल स्वरूप में आज भले ही प्रासंगिक नहीं रह गयी हैं, लेकिन इसके मूलतत्व को समझकर हम आधुनिक युग में भी बहुत सही तरीके से जीवन जी सकते हैं। मनुस्मृति को लेकर आज बहुत बवाल मचा हुआ है। इसका कारण यह है, कि शरारती तत्वों ने इसकी विषय-वस्तु के साथ समय-समय पर साजिशन छेड़छाड़ की गयी है। शरारतन अनेक ऐसी बातें जोड़ दी गयी हैं, जो मनु जैसे महापुरुष लिख ही नहीं सकते थे और जो मूल हिन्दू-दर्शन के एकदम विरुद्ध हैं। इसी कारण आजकल अनेक लोग इस पुस्तक को निन्दित मानने लगे हैं। लेकिन आज के संदर्भ में कुछ बातों को अलग करने के बाद इसमें लिखीं बातें सदा-सर्वदा प्रासंगिक हैं।
2। अत्रि स्मृति। इसकी रचना अत्रि मुनि ने की है। यह भी जीवन में सदाचार और पवित्रता की दिशा में एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है।
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