क्यों भगवान विष्णु को जगत का पालनहार कहा जाता है ?
Bhagwan Vishnu – भगवान विष्णु की साधना क्यों ?
Lord Vishnu : सृष्ट्रि की उत्पति का कार्य जहां ब्रह्म द्वारा संचालित होता है, वहा जीवन के पश्चात मृत्यु तक पालन-पोषण का प्रबंध विष्णु देखते है। साधक को यदि पूर्ण शांति, परम वैराग्य और साक्षात् सामीप्य एवं कृपा की आवश्यकता है, तो इसके लिए वैकुण्ठाधिपति विष्णु की साधना आवश्यक मानी गई है।
शास्त्रों में विष्णु के संबंध में कहा गया है-
शांताकारं भुजगशयनं पद्यनाभं सुरेशम्।
अर्थात् – विष्णु का शांत आकार है, वे शयया पर शयन करने वाले हैं उनकी नाभि में कमल है। और वे समस्त देवो के अधिपति है। विश्व के आधार है, आकाश के समान है। बादलो के समान उनही कांति है। लक्ष्मी के पति है। उनके नैत्र कमल के समान है। और वे रोेेेेेेगियों द्वारा ध्यान मंे दीख पडते हैं वे विश्व के समस्त भेदों को मिटाने वाले और सर्वलोक के एकमात्र अधिष्ठाता हैं ऐसे विष्णु की साधको को वंदना करनी चाहिए।
‘‘शांताकारं’’ का अर्थ है, ‘‘शांत आकार’’, एक साधारण सर्प की कल्पना मा़त्र से जहां लोग भयााक्रांत हो जाते हैं, वहां हजार फण वाले नाग पर लेटे निद्रा लेने वाले भगवान विष्णु शांत हैं, अतः मोक्ष की अभिलाषा करने वाले साधक को भी इतना शांत होना चाहिए।
उन्ही शेषशायी भगवान विष्णु की नाभि से पद्य निकला हैं, जिस पर साक्षात् ब्रह्म विराजते हैं। विष्णु तर कहलाते है। जबकि उन्होंने तमोगुण के प्रतीक महासर्प को अपने नीचे दबा रखा है और रजोगुण के प्रतीक श्री ब्रह्म को भी अपने उदर से निकाल दिया है। इसी कारण वे विशुद्ध सत्वरूप् हैं। उनके साधक को भी ऐसा ही होना चाहिए। तभी वही समस्त देवी-शक्तियों का स्वामी, विश्व प्रपंच का एकमात्र आधार, आकाश के समाान निर्लेप, निरंजन, मेघों के समान जल से तृप्त करने वाला, पवित्र अंगो से युक्त और माया का स्वामी बन जाएगा।
उसकी दृष्टि कमल की भांति सदा भवजल के स्तर से ऊॅची उठी रहेगी। केवल योगी और महात्मा की ध्यानादि में इस विग्रह को पा सकते हैं तब साधक को विविध योनियों में भटकनें और जीवनचक्र से मुक्ति मिलती है और वह भगवान में विलीन होकर मोक्ष की प्राप्ति करता हैं।
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