धार्मिक क्रियाओ में पिले वस्त्र, खास धातु के पात्र और आसन क्यों आवश्यक और लाभदायक होता है ? जानिए

Dec 22,2022 | By Admin

धार्मिक क्रियाओ में पिले वस्त्र, खास धातु के पात्र और आसन क्यों आवश्यक और लाभदायक होता है ? जानिए

धार्मिक क्रियाओं में पीत-वस्त्र धारण क्यों ?

आजकल कार्यानुसार वस्त्र धारण की धारण विविध क्षेत्रों में प्रचलित हो गई हैं। इसमें वातावरण निर्माण के लिए विशिष्ट पोशाक की आवश्यकता होती है। देव कार्य-पूजा, होम तथा नित्य कर्म और देव पितृकार्य-श्रद्वा आदि धार्मिक प्रसंगों के समय रोेजाना के वस्त्र शरीर पर रखना उचित नहीं है। इसके पीछे धार्मिक ही नहीं, वैज्ञानिक कारण भी हैं।

प्राचीन काल से यह मान्यता है कि अस्वच्छ वस्त्र पहनकर किए गए धार्मिक कार्य का फल राक्षस ले जाते है। ऑपरेशन थिएटर में जूते-चप्पल पहनकर नहीं जाने दिया जाता, क्योंकि वहां सच्चे अर्थ में स्वच्छता का पालन किया जाता है। फिर पीले वस्त्र पहनकर धार्मिक कार्य करने की शास्त्राज्ञा हो तो इसमे अनुचित क्या हैं ?

वैज्ञानिक दृष्टि से विचार करने पर रेशमी या ऊनी पीत (पीले) वस्त्र धार्मिक कार्य के लिए अधिक शुभ एवं लाभदायक होते है। धार्मिंक कार्य के समय मंत्रोच्चारण से उठने वाले स्पंदन एवं विद्युत लहरों का पूरे शरीर में प्रभाव हो, इसके लिए रेशमी या ऊनी पीत वस्त्र अत्यंन उपयोगी होते है। पूजा, तप, जप, संस्कार, अनुष्ठान एवं पुरश्चरण आदि के समय उपवस्त्र डाल लेना चाहिए।

धार्मिक कृत्यों मे खास धातु के पात्र क्यों ?

हिंदू धर्म में पवित्रता पर अधिक बल दिया गया है। धातुओं के चयन में भी यही बात लागू होती है। सोना, चांदी, तांबा और कांसा- इन धातुओें के बने पात्रों को पवित्र माना गया है। इसीलिए पूजा आदि धार्मिक कृत्यों में इनका उपयोंग पवित्र माना गया है।

‘आयुर्वेद’ का मत है कि स्वर्ण के पात्रों के उपयोग से बल-वीर्य की वृद्वि होती है तथा इनके उपयोग से रोग प्रतिरोधक क्षमता बढती है।

चंदी के पात्र प्राकृतिक रूप से शीतल होने के कारण पित्त प्रकोप दूर करते हैं। चांदी की नेत्र-ज्योति बढाने वाली, मानसिक शांति और शारीरिक शीतलता प्रदान करने वाली धातु कहा गया है। पौराणिक मान्यता के अनुसार पृथ्वी पर शिव पुत्र कार्तिकेय के वीर्य के गिरने से तांबा बना। यह रोगहर और पवित्र होता हैं।

कांसे का पात्र प्रयोग करने से पित्त की शुद्धि होती है तथा बुद्धि बढती हैं।

धार्मिक कार्याे के लिए आसन क्यों ?

जिस पर आप बैठते है, उसे आसन कहते है। जिस आसन पर बैठकर आप आसन करते है, उसमें आपकी मानसिक एवं शारिरीक ऊर्जा तरंगों की विशेष गति तथा विशेष दिशा निर्दिष्ट होती है जबकि जिस आसन पर आप बैंठे है, वह उन ऊर्जा तरंगो को अपने लक्ष्य की प्राप्ति का एक ठोस आधार देेता है। वह ऊर्जा के क्रिया-प्रतिक्रिया की संभावना क्षति के प्रतिशत में कमी लाता है और उसे पूरी तरह से रोकता है।

‘ब्रह्मण्ड़ पुराण’ में विविध आसनो की फलश्रुति बताई गई है-

खुली जमीन पर कष्ट एवं अडचने।

लकडी का आसन दुर्भाग्यपूर्ण।

बांस की चटाई का आसन दरिद्रतापूर्ण।

पत्थर का आसन व्याधियुक्त।

घास-फुस के आसन से यश नाश।

पल्लव(पत्तों) कर आसन बुद्विभ्रंश करने वाला तथा

इकहरे झिलमिल वस्त्र का आसन जप-तप-ध्यान की हानि करने वाला होता हैं।

धातु के माध्यम से विद्युतसंक्रमण शीघ्र होता है लेकिन लकडी, चीनी मिट्टी या कुश आदि वस्तुओं में विद्युतसंक्रमण नहीं होता। पहले प्रकार के पदार्थ संक्रामक तथा दूसरे प्रकार के पदार्थ असंक्रामक होते हैं। विद्युत प्रवाह के संक्रामक और असंक्रामक तत्वों के आधार पर प्राचीन ऋषि मुनियों ने आसन के लिए विविध वस्तुओं की सुस्तुति की है। गाय के गोबर स लिपी-पुती जमीन, कुशाकासन, मृगाजिन, व्याघ्राजिन एवं ऊनी कपड़ा आदि वस्तुएं असंक्रामक होती हैं।

यदि ऐसे आसन पर बैठकर नित्य कर्म, संध्या या साधना की जाए तो पृथ्वी के अंतर्गत विद्युत प्रवाह शरीर पर कोई प्रभाव नहीं डालता। इसमें मृगासन, व्याघ्रासन एवं श्रेष्ठ माने जाते है।

यजुर्वेद के अनुसार-कृष्णाजिनं वै सुकृतस्य योनिः।

अर्थात् – काले मृग का चर्म सभी पुण्यों का जनक हैं।

मृग चर्म का एक विशेष गुण यह है कि वह पार्थिव विद्युत प्रवाह से साधक की रक्षा करता है। साथ ही उसके प्रयोग से सत्व गुणों का विकास होता है। शरीर में स्थिर तमोगुणी वृत्ति स्वतः नाश हो जाती हैं।

आयुर्वेद कहता है कि मृगाजिन पर बैठने वोले मनुष्य को बवासीर तथा भगंदर जैसे रोग नहीं होते। मृगाजिन से सात्विक ऊर्जा की प्राप्ति होती है तथा व्याघ्राजिन एवं सिंहाजिन से राजस् ऊर्जा की प्राप्ति होती है। इसके अलावा बाद्य और शेर के चर्म के आसपास मच्छर, बिच्छू तथा सर्प आदि जहरीले जीव नही आते है। ये आसन शरीर मे अतिरिक्त् उष्णता उत्पन्न करते है, अतः इन सभी बातों का विचार करने के बाद ही अपने लिए आसन का चुनाव करे।

यदि दीर्घ काल तक साधना करनी हो तो इनमें से ही किसी आसन का चुनाव करें। उसके दोष निवारण के लिए उस पर ऊनी वस्त्र डा़ल दे। यहां यह बात विशेष उल्लेखनीय है कि चर्मासन प्राप्ति के लिए मृग आदि का शिकार न करें। सहज मृत्यु के बाद प्राप्त चर्म से बना आसन ही साधक के लिए उपयोगी सिद्ध होगा।

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