कुण्डलिनी चक्रों के वैदिक नाम तथा चक्र सोधन में प्राणमय कोष की भूमिका
कुण्डलिनी चक्र – Kundalini Chakra in Hindi
वैदिक साहित्य में मानव शरीरगत मूलाधार आदि चक्रो के नाम प्रतीकात्मक वैदिक नाम या संकेत मन्त्र ‘भू:’, ‘भुव:’, आदि सस महाव्यहतियो के रूप में है ! के आचार्य ‘भू:’, ‘भुव:’, आदि सस महायावतियो के रूप में है |
योग के आचार्य ‘भू:’, नाम से मूलाधार, ‘भुव:’, से स्वाधिष्ठान ‘स्व:’, से मणिपुर चक्र, ‘मह:’, से हदय’ व ‘अनाहत चक्र’ ‘जन:’, से विशुद्धि चक्र’, ‘तप:’ से आज्ञा चक्र और ‘सत्यम’ से सहस्त्रार का ग्रहण करते है ! ये सब चक्र जहाँ अपनी निजी शक्ति तथा प्रकाश रखते है , वहा ये सब प्राणमय , मनोमय और विज्ञानमय कोशो की शक्ति तथा प्रकाशो से भी आवृत प्रभावित होते है ! अतः इन सभी चक्रों में आई मलिनता और इन पर छाया हुआ आवरण प्राणायाम साधना से दूर हो जाता है !
कुण्डलिनी शक्ति – Kundalini Shakti
इस समस्त शरीर को-सम्पूर्ण जीवन कोशों को-महाशक्ति की प्राण प्रक्रिया संम्भाले हुए हैं । उस प्रक्रिया के दो ध्रुव-दो खण्ड हैं । एक को चय प्रक्रिया (एनाबॉलिक एक्शन) कहते हैं । इसी को दार्शनिक भाषा में शिव एवं शक्ति भी कहा जाता है । शिव क्षेत्र सहस्रार तथा शक्ति क्षेत्र मूलाधार कहा गया है । इन्हें परस्पर जोड़ने वाली, परिभ्रमणिका शक्ति का नाम कुण्डलिनी है | सहस्रार और मूलाधार का क्षेत्र विभाजन करते हुए मनीषियों ने मूलाधार से लेकर कण्ठ पर्यन्त का क्षेत्र एवं चक्र संस्थान ‘शक्ति‘ भाग बताया है और कण्ठ से ऊपर का स्थान ‘शिव’ देश कहा है । मूलाधार से कण्ठपर्यन्त शक्ति का स्थान है । कण्ठ से ऊपर से मस्तक तक शाम्भव स्थान है ।
चक्र सोधन या कुण्डलिनी जागरण – Kundalini Jagran
जो शक्ति इस ब्रह्माण्ड में है, वही शक्ति, इस पिण्ड में भी है | शक्ति का मुख्य आधार मूलाधार चक्र है | मूलाधार चक्र के जाग्रत होने पर दिव्य शक्ति ऊर्ध्वगामिनी हो जाती है, यह कुण्डलिनी जागरण है | जैसे सब जगह विघुत के तार बिछाये हुए हो तथा बल्ब आदि भी लगाये हुए भी हो, उनका नियंत्रण मेन स्विच से जुड़ा होता है | जब मैन स्विच को ओन कर देते है, तो सभी यन्त्रों में विघुत का प्रवाह होने से सब जगह रोशनी होने लगती है, इसी प्रकार मूलाधार चक्र में सन्निहित दिव्य विघुतीय शक्ति के जाग्रत होने पर अन्य चक्रों का भी जागरण स्वत: होने लगता है ! यह कुण्डलिनी जागरण उर्ध्व उत्क्रमण करती हुई जब ऊपर उठती है, तब जहाँ जहा कुण्डलिनी शक्ति पहुचती है, वहा विधिमान अधोमुख चक्रों का उर्ध्व मुख हो जाता है |
जब यह शक्ति पहुचती है, तब सम्प्रज्ञात समाधी तथा जब सहस्त्राहार चक्र पर पहुचती है, तब समस्त वर्तियो के निरोध होने पर असम्प्रज्ञात समाधि होती है | इसी अवस्था मे आत्मा को चित में सन्निहित दिव्य ज्ञानलोक भी प्रकट हो लगता है, जिसे ऋतम्भरा प्रज्ञा कहते है | इस ऋतम्भरा प्रज्ञा की प्राप्ति होने पर साधक को पूर्ण सत्य का बोध हो जाता है और अंत मे इस ऋतम्भरा प्रज्ञा के बाद साधक को निर्विघ्न समाधि का असीम, अनंत आनंद प्राप्त हो जाता है | यही योग की चरम अवस्था है, इस अवस्था में पहुंचकर संस्कार रूप में विधमान वासनाओ का भी नास हो जाने से जन्म व मरण के बंधन के साधक मुक्त होकर के समस्त आनंद को प्राप्त कर लेता है |
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कुण्डलिनी जागरण के उपाय – Kundali Jagran ke upay
सिद्धयोग के अन्तर्गत कुण्डलिनी का जागरण शक्तिपात दवारा किया जाता है ! यदि कोई परम तपस्वी, साधनाशील सिद्धगुरु मिल जावे तो उनके प्रबलतम शक्तिसंपात अर्थात मानसिक संकल्प से शरीर में व्याप्त मानस दिव्य तेज में सिमट आत्म चेतना से पूर्ण यह तेज एक चेतन के सामान ही कार्यरत हो जाता हे | सद्गुरु के शक्तिसंपात से साधक को अति श्रम नहीं करना पड़ता उसका समय बच जाता हे, और साधना में सफलता भी शीघ्र प्राप्त हो जाती है |
अतः वर्तमान में हठयोग द्वारा कुण्डलिनी जागृत करना महत्वपूर्ण है, यघपि श्री गोरखनाथजी ने सिद्ध सिद्धांत पद्धति में नव चक्रों का वर्णन किया है, तथापि छ चक्रों – मूलाधार स्वाधिष्ठान, मणिपुर , अनाहत, विशुद्धि और आज्ञा चक्र पर ही हठयोग की साधना आधारित है | इन्ही के भेदन से साधक सहस्त्रार में शिव का साक्षात्कार करता है |
सतकर्म, आसन, प्राणायाम, मुद्रा, बंध, आदि क्रियाओ दवारा शरीर योगा द्वारा शुद्ध कर लिया जाता है | मल से भी नाड़ियों के चक्र का सोधन प्राणायाम से ही होता हे ! प्राणसाधना से नाड़ियों के चक्र का सोधन प्राणायाम से ही होता हे ! प्राणसाधना से नाड़ियों के शुद्ध होने पर साधक प्रत्याहार के द्वारा इन्द्रियों को विषयो से हटाकर आत्मभिमुखी कर देता हे | धारणा द्वारा मन की निश्चलता के साथ साधक जल, तेज, वायु, और आकाश पर विजय प्राप्त करता है | चक्रभेदन करते हुए ध्यान दवारा कुण्डलिनी को जाग्रत करने से जीवात्मा परम पिता शिव का साक्षात्कार कर लेता है | हठयोग की चरम परिणीति कुण्डलिनी जागरण से चक्र भेदन कर सहस्त्रार में शिव का साक्षात्कार है, यही उन्मनी सहजावस्था है |
योगासन-सिद्धि को जाने पर प्राण-साधना, ध्यान-साधना तथा समाधी आदि में सफलता शीघ्र होती है | ध्यानात्मक आसन में बेठ कर मेरुदण्ड को सीधा रखने से सुषम्ना से निकले नाड़ी-गुछको में प्राण सरलता से गमनागमन करने लगता है | मेरुदण्ड के झुक जाने से संकुचित बने स्नायु-गुछक अनावश्यक और अवरोधक कफ आदि से लिप्त होने के कारण प्राण – प्रवेश से शरीरगत प्राण की विसमता दूर होकर क्षमता आ जाती है |
ध्यान-धारणा के साथ प्राणायाम करने से सर्वप्रथम योगाभ्यासी के प्राणमय कोष पर प्रभाव पड़ता है, जिससे प्राणमय कोष का समस्त भाग उत्तेजित होकर रक्त परिभ्रमण को तत्पर करके, स्थान- स्थान पर एकत्रित हुए श्लेष्मा आदि मल को फुफुस, त्वचा, आंतो, आदि के पन्थो से बाहर निष्कासित करते है | फलस्वरूप शरीर में अनेक प्रकार की विचित्र क्रियाए होने लगती है एव शरीर रोमांचित हो उठता है | योग में इसे ‘प्राणोत्थान’ कहते है, जो कुण्डलिनी जागरण का प्रथम सोपान है ! इसमे विशेष रूप से प्राण की गतिविधिशीलता-जन्य परस्परनुभूतिया होती है | अभ्यास की निरंतरता से प्राणोत्थान के प्रकाशपूर्ण उत्तरार्ध भाग में शरीर में यंत्र -तंत्र कुछ प्रकाश भी दिखाने लगता है एव कुण्डलिनी जागरण का उत्तरार्ध भाग प्रारम्भ हो जाता है |
इस प्रकार प्राण-साधना के प्राणमय कोष का साक्षात्कार होता है | सभी कोष प्राण से आबंध है अतः चक्रों में आई हुई मलिनता और इन पर छाया हुआ आवरण प्राणायाम द्वारा दूर हो जाने से शरीरगत चक्रो का चक्रों में होने वाली क्रियाओ का, यहाँ की शक्तियों का जहा -तहा कार्य करने वाले प्राणो और उपप्राणो का इस और अधिपतियों का साक्षात्कार भी यथासंभव हो जाता है | प्राण साधना के निरंतर अभ्यास से जब चक्रों में रहनेवाली शक्ति पर अधिपत्य हो जाता है, तब मूलाधार से सहस्त्रार तक प्राण प्राणशक्ति को स्वेछा -पूर्वक संचालित कर लेने सामर्थ्य से समस्त चक्रों का एव उतरोतर अगले-अगले कोसो का साक्षात्कार कर लेना अति सरल हो जाता है |
कुण्डलिनी योग चक्रो के नाम
मूलाधार चक्र
यह गुदा और लिंग के बीच चार पंखुड़ियों वाला आधार चक्र है। आधार चक्र का ही दूसरा नाम मूलाधार है| इस चक्र को जाग्रत करने के लिए व्यक्ति को सबसे पहले प्राणायाम करके, अपना ध्यान मूलाधार चक्र पर केंद्रित करके मंत्र का उच्चारण करना चहिए। इसका मूल मंत्र ” लं” है। धीरे-धीरे जब यह चक्र जाग्रत होता है तो व्यक्ति में लालच ख़त्म हो जाता है और व्यक्ति को आत्मीय ज्ञान प्राप्त होने लगता है|
स्वाधिष्ठान चक्र
यह मूलाधार चक्र के ऊपर और नाभि के नीचे स्थित होता है। स्वाधिष्ठान चक्र का सम्बन्ध जल तत्व से होता है। इस चक्र के जाग्रत हो जाने पर शारीरिक समस्या और विकार, क्रूरता, आलस्य, अविश्वास आदि दुर्गुणों का नाश होता है| शरीर में कोई भी विकार जल तत्व के ठीक न होने से होता है। इसका मूल मंत्र “वं ” है|
मणिपूर चक्र
यह तीसरा चक्र है जो नाभि से थोड़ा ऊपर होता है| योगिक क्रियाओं से कुंडलिनी जागरण करने वाले साधक जब अपनी ऊर्जा मणिपूर चक्र में जुटा लेते हैं, तो वो कर्मयोगी बन जाते हैं। यह चक्र प्रसुप्त पड़ा रहे तो तृष्णा, ईर्ष्या, चुगली, लज्जा, भय आदि मन में लड़ जमाये पड़े रहते है|
अनाहत चक्र
यह चक्र व्यक्ति के ह्रदय में स्थित रहता है। इस चक्र को जाग्रत करने के लिए व्यक्ति को हृदय पर ध्यान केंद्रित कर मूल मंत्र “यं” का उच्चारण करना चाहिए। अनाहत चक्र जाग्रत होते ही बहुत सारी सिद्धिया प्राप्त होती है| यह सोता रहे तो कपट, चिंता, मोह और अहंकार से मनुष्य भरा रहता है।
विशुद्ध चक्र
यह चक्र कंठ में विद्यमान रहता है। इसे जाग्रत करने के लिए व्यक्ति को कंठ पर ध्यान केंद्रित कर मूल मन्त्र “हं” का उच्चारण करना चहिये। विशुद्ध चक्र बहुत ही महवपूर्ण होता है। इसके जाग्रत होने से व्यक्ति अपनी वाणी को सिद्ध कर सकता है। इस चक्र के जाग्रत होने से संगीत विद्या सिद्ध होती है, शब्द का ज्ञान होता है और व्यक्ति विद्वान बनता है|
आज्ञा चक्र
आज्ञा चक्र भ्रू मध्य अर्थात दोनों आँखों के बीच में केंद्रित होता है। इस चक्र को जाग्रत करने के लिए व्यक्ति को मंत्र “ॐ” करना चाहिए| इसके जाग्रत होने ही मनुष्य को देव शक्ति और दिव्य दृष्टि की सिद्धि प्राप्त होती है। त्रिकाल ज्ञान, आत्म ज्ञान और देव दर्शन होता है|
सहस्रार चक्र
सहस्रार चक्र व्यक्ति के मष्तिष्क के मध्य भाग में स्थित होता है| बहुत काम लोग होते है जो इस चक्र को जाग्रत कर पाये इसे जाग्रत करना बहुत ही मुश्किल काम है। इसके लिए बरसो तपस्या और ध्यान करना होता है। इस चक्र को जाग्रत कर व्यक्ति परम आनंद को प्राप्त करता है और सुख -दुःख का उस पर कोई असर नहीं होता है|
Tags : Mantra
Category : Vedic Astrology