प्राणायाम की सम्पूर्ण प्रक्रिया और करने की योगिक विधि

Dec 22,2022 | By Admin

प्राणायाम की सम्पूर्ण प्रक्रिया और करने की योगिक विधि

यघपि प्राणायाम की विभिन्न विधियाँ शास्त्रो में वर्णित हे और प्रत्येक  Pranayama का अपना एक विशेष महत्व है तथापि सभी प्राणायामों का व्यक्ति प्रतिदिन अभ्यास नहीं कर सकता अतः हमने गुरुओ की कृपा व अपने अनुभव के आधार पर प्राणायाम की एक सम्पूर्ण प्रक्रिया को विशिष्ट वैज्ञानिक रीती व आध्यात्मिक विधि से सात प्रक्रियाओ में क्रमबद्ध व समयबद्ध किया है इस पूरी प्रक्रिया में लगभग २० मिनट का समय लगता है प्राणायाम के इस पूर्ण अभ्यास करने से व्यक्ति को जो मुख्य लाभ होते है संक्षेप में इस प्रकार है –

१. वात पित्त व कफ त्रिदोषों का शमन होता है  |

२. पाचन तंत्र पूर्ण सवस्थ हो जाता है तथा समस्त उदर रोग दूर होते है  |

३. ह्रदय, फेफड़े व मस्तिक समन्धी समस्त रोग दूर होते है |

४. मोटापा, मधुमेह, कोलेस्ट्रोल, कब्ज, गैस, अम्लपित्त, सास रोग, एलर्जी, माइग्रेन, रक्तचाप, किडनी केरोग पुरुस व सस्त्रियो के समस्त योन रोग आदि सामान्य रोगो से लेकर कैंसर तक लेकर सभी साध्य असाध्य रोग दूर होते हे |

५. रोग प्रतिरोधक शमता अत्यधिक विकसित हो जाती है  |

६. वंशानुगत diabetes problem व heart problem आदि से बचा जा सकता है  |

७. बालो का झड़ना व सफेद होना चेहरे पर झुरिया पड़ना नेत्र ज्योति के विकार समृति दोर्बल्य आदि से बचा जा सकता है अर्थात बुढ़ापा देर से आएगा तथा आयु बढ़ेगी |

८. मुख पर आभा , ओज, तेज व शांति आएगी |….पढ़े घरेलु नुस्के और रहे रोगों से दूर :

९. चक्रो के शोधन भेदन व जागरण द्वारा आध्यात्मिक शक्ति {कुण्डलिनी जागरण} की प्राप्ति होगी |

१०. मन अत्यंत स्थिर शांत व प्रसनन तथा उत्साहित होगा तथा डिप्रेशन आदि रोगो से बचा जा सकेगा |

११. ध्यान स्वत: लगने लगेगा तथा घंटो तक ध्यान का अभ्यास करने का सामर्थ्ये प्राप्त होगा |

१२. स्थूल व सूक्षम देह के समस्त रोग व काम क्रोध लोभ व मोह व अहंकार आदि दोष नष्ट होते है |

१३. शरीरगत समस्त विकार , विजातीय तत्व टॉक्सिन नष्ट हो जाते है  |

१४. नकारात्मक विचार समाप्त होते है तथा प्राणायाम का अभ्यास करनेवाला व्यक्ति सदा सकारात्मकविचार चिंतन व उत्साह से भरा हुआ होता है|

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प्रथम प्रक्रिया – भस्त्रिका प्राणायाम 

किसी ध्यानात्मक आसन में सुविधानुसार बैठकर दोनों नासिकाओं से श्वास को पूरा अंदर डायाफ्राम तक भरना व बाहर भी पूरी शक्ति के साथ छोड़ना भस्त्रिका प्राणायाम कहलाता है | इस प्राणायाम को अपने अपने सामर्थ्य के अनुसार तीन प्रकार से किया जा सकता है |मंद गति से, मध्यम गति से तथा तीर्व गति से| जिनके ह्रदये व फेफड़े कमजोर हो उनको मंद गति से रेजक व पूरक करते हुए प्राणायाम करना चाहिए | स्वस्थ व्यक्ति और अभ्यासी को धीरे धीरे श्वास प्रश्वास की गति बढ़ाते हुए मध्यम और फिट तीव्र गति से इस प्राणायाम को करना चाहिए | इस प्राणायाम को ३-५ मिनट तक करना चाहिए !

भस्त्रिका के समय शिवसंकल्प :

भस्त्रिका प्राणायाम में श्वास को अंदर भरते हुए मन में विचार {संकल्प} करना चाहिए की ब्रह्मांड में दिव्य शक्ति ऊर्जा पवित्रता शांति आन्नद जो भी शुभ है |वह प्राण के साथ मेरे देह में प्रविष्ट हो रहा है और  में दिव्य शक्तियो से ओत-प्रोत हो रहा हूँ | इस प्रकार दिव्य संकल्प के साथ किया हुआ प्राणायाम विशेष लाभप्रद है  |

विशेष :

१. जिनको उच्च रक्तचाप व ह्रदयरोग हो उन्हें तीर्व गति से भस्त्रिका नहीं करना चाहिए |

२. इस प्राणायाम को करते समय जब सास को अंदर भरे तब पेट को नहीं फुलाना चाहिए सास डायफ्राम तक भरे इससे पेट नहीं फूलेगा पसलियों तक छाती ही फूलेगी |

३. ग्रीष्म ऋतू में अल्प मात्र में करे |

४. कफ की अधिकता या साइनस आदि रोगो के कारन जिनके दोनों नासाछिद्र ठीक से नहीं खुले हुए उन लोगो को पहले दाये स्वर को बंद करके बाये से रेजक व पूरक करना चाहिए फिर बाये को बंद करके बाये से रेजक व पूरक करना चाहिए फिर बाये को बंद करके दाये से यथा सकती मंद मध्यम व तीर्व गति से रेजक व् पूरक करना चाहिए फिर अंत में दोनों स्वरों इड़ा व पिग्ला से रेजक व पूरक करते हुए भस्त्रिका प्राणायाम करे |

५. इस प्राणायाम की क्रियाओ को करते समय आँखों को बंध रखे और मन में प्रत्येक  सास परसास के साथ ओउम का मानसिक रूप से चिंतन व मनन करना चाहिए |

१. सर्दी जुकाम ,एलर्जी, श्वास रोग, दमा, पुराना नजला साइनस आदि समस्त कफ रोग दूर होते है |फेफड़े सबल बनते है  तथा ह्रदये व मस्तिक को भी शुद्ध प्राण वायु मिलने से आरोग्य लाभ होता हे |

२. त्रिदोष सम होते है  रक्त परिशुद्ध होता है तथा शरीर के विजातीय द्र्वयो का निष्काशन होता है  |

३. प्राण व मन स्थिर होता है प्राणोत्थान व कुण्डलिनी जागरण में सहायक है  |

द्वितीय प्रक्रिया – कपालभाति प्राणायाम 

कपाल अर्थात मस्तिष्क और भाति का अर्थ होता है दीप्ति, आभा, तेज, प्रकाश आदि | जिस प्राणायाम के करने से मस्तिष्क यानी माथे पर आभा, ओज व तेज बढ़ता हो वह प्राणायाम है- कपालभाति | इस प्राणायाम की विधि भस्त्रिका से थोड़ी अलग है | भस्त्रिका मैं रेचक पूरक में समान रुप से श्वास प्रश्वास पर दबाव डालते हैं, जबकि कपालभाती में मात्र रेचक अर्थात श्वास को शक्ति पूर्वक बाहर छोड़ने में ही पूरा ध्यान दिया जाता है | सांस को भरने के लिए प्रयत्न नहीं करते, अपितु सहज रूप से जितना स्वास्थ अंदर चला जाता है जाने देते हैं पूरी एकाग्रता सांस को बाहर छोड़ने में ही होती है | ऐसा करते हुए स्वाभाविक रूप से पेट में भी आकुञ्चन प्रसारण की क्रिया होती है तथा मूलाधार, स्वाधिष्ठान व मणिपुर चक्र पर विशेष बल पड़ता है | इस प्राणायाम को न्यूनतम 5:00 मिनट तक अवश्य ही करना चाहिए |

कपालभाति के समय शिवसंकल्प :

कपालभाती प्राणायाम को करते समय मन में ऐसा विचार करना चाहिए कि जैसे ही में सास को बाहर छोड़ रहा हूं, इस प्रश्वास के साथ मेरे शरीर के समस्त रोग बाहर निकल रहे हैं और नष्ट हो रहे हैं | जिसको जो शारीरिक रोग हो उस दोष या विकार, काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या, राग, द्वेष आदि को बाहर छोड़ने की भावना करते हुए रेचक करना चाहिए | इस प्रकार रोग के नष्ट होने का विचार सांस छोड़ते वक्त करने का भी विशेष लाभ प्राप्त होता है |

समय :

3 मिनट से प्रारंभ करके 5 मिनट तक इस प्राणायाम का अभ्यास करना चाहिए | प्रारंभ में कपालभाति प्राणायाम करते हुए जब-जब थकान अनुभव हो तब-तब बीच में विश्राम कर लेवे | 1 से 2 माह के अभ्यास के बाद इस प्राणायाम को 5 मिनट तक बिना रुके किया जा सकता है | यह इसका पूर्ण समय है | प्रारंभ में पेट कमर में दर्द हो सकता है | वह धीरे-धीरे अपने आप मिट जाएगा ग्रीष्म ऋतु में पित्त प्रकृति वाले करीब 2 मिनट अभ्यास करें |

लाभ :

१. मस्तिष्क व मुखमंडल ओज, तेज, आभा व सोंदर्ये बढ़ता है |

२. समस्त कफ रोग, दमा, श्वास, एलर्जी, साइनस आदि रोग नष्ट हो जाते है |

३. ह्रदय, फेफड़ो एवम मस्तिष्क के समस्त रोग दूर होते हे |

४. मोटापा, मधुमेह, गैस, कब्ज, अम्लपित्त, किडनी व प्रोस्ट्रेट से सम्बंधित सभी रोग निश्रित रूप से दूर होते है |

५. कब्ज जैसा ख़तरनाक रोग इस प्राणायाम के नियमित रूप से लगभग ५ मिनट तक प्रतिदिन करने से मिट जाता है | मधुमेह बिना औषधि के नियमित किया जा सकता है तथा पेट आदि का बढ़ा हुआ भार एक माह में ४ से ८ किलो तक कम किया जा सकता है | ह्रदय की सिरओ में आये हुए अवरोध {बलोकेज} खुल जाते है |

६. मन स्थिर, शांत व प्रसन्न रहता है | नकारात्मक विचार नष्ट जाते है | जिससे डिप्रेसन आदि रोगो से छुटकारा मिलता है |

७. चक्रो का शोधन तथा मूलाधार चक्र से लेकर सहस्त्रार चक्र पर्यन्त चक्रो में एक दिव्य शक्ति का संचरण होने लगता है |

८. इस प्राणायाम के करने से अमाशय, अग्नाशय {पेन्क्रियाज}, यकृत, प्लीहा, आंत्र, प्रोस्टेट एव किडनी का आरोग्य विशेष रूप से बढ़ता है | पेट के लिए बहुत से आसन करने पर भी जो लाभ नहीं हो पाता मात्र इस प्राणायाम के करने से ही सब आसनो से भी अधिक लाभ मिलता है | दुर्बल आंतो को सबल बनाने के लिए भी ये प्राणायाम सर्वोत्तम है |

तृतीये प्रक्रिया – बाह्य प्राणायाम {त्रिबन्ध के साथ }

१. सिद्धासन या पद्मासन में विधिपूर्वक बैठकर श्वास को एक ही बार में यथा शक्ति बाहर निकाल दीजिये |

२. श्वास बाहर निकालकर मूलबंध, उड्डियान, बंध व जालंधर बंध लगाकर श्वास को यथा शक्ति बाहर ही रोककर रखे |

३. जब श्वास लेने की इछा हो तब बन्धो को हटाते हुए धीरे-धीरे श्वास लीजिए |

४. श्वास भीतर लेकर उसे बिना रोके ही पुनः पूर्ववत श्वसन क्रिया द्वारा बाहर निकाल दीजिए | इस प्रकार ऐसे ३.से लेकर २१. बार तक कर सकते है|

लाभ :

यह हानिरहित प्राणायाम हे | इससे मन की चंचलता दूर होती हे | जठरागित प्रदिश होती हे | उदर रोगो में लाभप्रद हे | बुधि सूक्षम से तीर्व होती हे शरीर का शोधक हे | वीर्य की उधर्व गति करके स्वप्र -दोस, शीघ्रपतन, आदि धातु -विकारो की निर्वति करता हे बाहा प्राणायाम करने से पेट के सभी अवयवो पर विशेष बल पड़ता हे तथा प्रारम्भ में पेट के कमजोर या रोगग्रस्त भाग में हल्का दर्द भी अनुभव होता हे अतः पेट को विश्राम तथा आरोग्ये देने के लिए त्रिबन्ध पूर्वक यह प्राणायाम करना चाहिए |

सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में संव्याप्त प्राणतत्व ही हमारी स्थिति, गति एवं क्रिया का आधार है। उसी समष्टि व्यापी प्रखर तत्व को ब्रह्माग्नि कहा जाता है। व्यष्टि में समाहित उसी प्राण सत्ता को आत्माग्नि कहा जाता है। व्यष्टि से समष्टि तक, पिण्ड से ब्रह्माण्ड तक यही एक तत्व लघु और विभु-असंख्य रूपों में गतिशीलता को जन्म दे रहा है। उसी की स्फुरणाएँ स्तर-भेद एवं उपभेद से भिन्न भिन्न नाम धारण करती तथा भिन्न भिन्न प्रक्रियाओं और परिणामों को जन्म देती हैं। उसके बिना अस्तित्व की कल्पना भी नहीं की जा सकती। अस्तित्व या स्थिति और गति दोनों का आधार यही प्राणतत्व है।

सृष्टि का अस्तित्व गति में है। स्फुरणा प्रत्येक वस्तु में है। छोटे से छोटे परमाणु से लेकर ग्रह, नक्षत्र, सूर्य सभी पिण्ड पदार्थ गतिशील हैं। प्रकृति में कोई भी वस्तु स्थिर नहीं है। स्थिर दिखायी पड़ने वाली वस्तुओं के अन्तराल में भी प्रचण्ड गति हो रही है। एक अणु भी यदि गतिहीन हो जाय तो सारी व्यवस्था लड़खड़ा उठेगी। घटनाएँ अलग-अलग दीखते हुए भी परस्पर एक दूसरे से सम्बद्ध होने के कारण एक सामान्य अणु की स्थिति का कुछ न कुछ प्रभाव सारे ब्रह्माण्ड के ऊपर पड़ता है।

अनवरत स्फुरण से ही विश्व का व्यापार हो रहा है। पदार्थ शक्ति द्वारा संचालित है। जिसके कारण अगणित रूप एवं भेद उत्पन्न हो रहे हैं। किन्तु ये रूप एवं भेद भी स्थायी नहीं है। परिवर्तन की शृंखला में आकर वे भी नया रूप ग्रहण कर लेते हैं। कोई भी वस्तु नित्य एवं स्थायी नहीं हैं। किन्तु स्थिति, क्रिया एवं गतिशीलता का मूल तत्व स्थायी है। वही प्राणतत्व है। परिवर्तन भी उसी की भिन्न-भिन्न अभिव्यक्तियाँ मात्र हैं।

शरीर को ही लें तो पता चलता हैं कि इसमें भी परमाणु अनवरत स्फुरण कर रहे हैं। थोड़े ही दिनों में पूरा शरीर परिवर्तित हो जाता है। इन सभी प्रकार के स्फुरणों में एक ही प्राणतत्व की क्रमबद्ध ताल है। जो सर्वव्यापक एवं सभी छोटे पिण्डों से लेकर ब्रह्माण्ड में कार्य कर रहा है। ग्रहों के सूर्य के चारों और घूमने, समुद्र के उभरने, ज्वार के उठने, भाटा के बैठने, हृदय की धड़कन, पदार्थों के परमाणुओं की फड़कन सबमें इसी के क्रमबद्ध ताल का नियम कार्य कर रहा है। सूर्य किरणों का निस्सारण, जलवृष्टि सभी उसके अंतर्गत आते हैं। मानव शरीर भी प्राणतत्व के ताल-नियम के वशवर्ती उसी प्रकार है, जिस तरह ग्रहों का सूर्य के चारों ओर घूमना।

इस प्राणतत्व कि मात्रा और चेतना जिन पिण्डों में अपेक्षाकृत अधिक और उन्नत स्तर की होती है, उसे प्राणी कहा जाता है। मनुष्य अन्य प्राणियों से श्रेष्ठ एवं समर्थ इसीलिए है कि उसमें प्राणतत्व का औरों की अपेक्षा बाहुल्य रहता है।

सजीवता, प्रफुल्लता, स्फूर्ति, सक्रियता जैसी शारीरिक विशेषताएँ प्राणतत्व की प्रखर किरणें ही तो हैं। मनस्विता, तेजस्विता, चातुर्य, दक्षता, प्रतिभा जैसी मानसिक विभूतियाँ इसी प्राण समुद्र की प्रचण्ड तरंगों की संज्ञाएँ हैं। कारण शरीर में अभिव्यक्त यही तत्व सहृदयता, करुणा, कर्तव्यनिष्ठा, संयमशीलता, तितीक्षा, श्रद्धा, सद्भावना, समस्वरता जैसी प्राण-सम्वेदनाओं समझने वाला मनुष्य प्रकृति-नटी का प्रिय साथी बन जाता है। वह सृष्टि की सौंदर्य प्रक्रिया और

आनन्द-प्रक्रिया को समझकर उसमें अपना भी योग देता है। किन्तु इन नियमों से अनभिज्ञ व्यक्ति उसमें व्यवधान उत्पन्न करता है। सुन्दर सुमधुर संगीत की स्वर लहरी के बीच कोई बेसुरा स्वर जिनने सुना है और कुशल नृत्य मण्डली की झंकृत लय-ताल के बीच कभी किसी आकस्मिक कारण से विक्षेप होते जिनने देखा है, वे ही जान-समझ सकते हैं कि ऐसी बेसुरी आवाज और ऐसा अनुचित विक्षेप कितना अप्रिय लगता है, कितने उद्वेग का कारण बनता है। प्रकृति में संव्याप्त प्राणतत्व के लय-ताल के नियमों से अनभिज्ञ व्यक्ति भी प्रकृति नटी की ऐसे ही के रूप में प्रकट होता है प्राण वह विद्युत है, जो जिस क्षेत्र में, जिस स्तर पर भी प्रयुक्त होती है, उसी में चमत्कार उत्पन्न कर देती है।

इस प्राण-शक्ति की सक्रियता के निश्चय नियम हैं। इसकी प्रत्येक स्फुरणा में लय है, ताल है। वस्तुतः सर्वत्र यह प्राणतत्व नटराज निरन्तर नृत्य-निरत रहता है। इसके नृत्य की हर भंगिता में लास्य है। सौंदर्य है, रस है, भाव है, आनन्द है। प्राणों का नृत्य ही जीवन है। जीवन-शक्ति प्राण-शक्ति का ही दूसरा नाम है।

अध्यात्म शास्त्र में प्राण तत्व की गरिमा का भाव भरा उल्लेख है। प्राण की उपासना का आग्रह किया गया है। इसका तात्पर्य इसी प्राणतत्व की लय-तालबद्धता के नियमों को जानना और उससे लाभ उठाना है। यही प्रखर, पुष्ट प्राण संकल्प बनकर प्रकट होता और सिद्धि का आधार बनता है। प्राण को आकर्षित करने में सफलता उन्हें ही मिल सकती हैं, जो इस लय-ताल की विधि को समझते और अपनाते हैं। योगी इसी विधि को जानकर प्राणाकर्षण द्वारा प्राण संवर्धन में समर्थ होते हैं।

लय-ताल की एकतानता का चमत्कारी प्रभाव देखा जाता है। सेना के पुल पार करते समय उनके कदम के क्रमबद्ध ताल को तोड़ दिया जाता है। ऐसा न किया जाय तो उत्पन्न होने वाली प्रतिध्वनि से पुल के टूटने का खतरा हो सकता है। वेला वाद्य यन्त्र पर एक स्वर को तालयुक्त बारम्बार बजाया जाय तो पुल टूट जायेगा। यह तालबद्धता की शक्ति है।

तालयुक्त श्वास प्रक्रिया द्वारा ही अन्तरिक्ष में संव्याप्त प्राण-तत्व को अधिक मात्रा में खींचा एवं अपने अन्दर भरा जाता है। इस प्रक्रिया में जितनी दक्षता प्राप्त होती जाती है, उतनी ही सामर्थ्य भी बढ़ती जाती है। प्राणाकर्षण का विकसित रूप वह है, जिसमें श्रद्धा निष्ठा का समावेश होता है और जो

प्राणतत्व की चेतना को भी आकर्षित करने तथा धारणा करने में समर्थ होता है। उस स्थिति में वह तत्व ब्रह्म प्रेरणा बनकर भीतर आता है। यह प्राणविद्या की परिपक्व उच्चस्तरीय अवस्था है। प्राणविद्या का प्रारम्भिक अंश वह है, जो गहरे, लय-तालबद्ध श्वास-प्रश्वास के अभ्यास से आरम्भ होता है। इसमें श्रद्धा की मात्रा उतनी बढ़ी-चढ़ी नहीं रह पाती। मात्र स्वास्थ्यप्रद, स्फूर्तिदायक प्राणशक्ति को भीतर गहराई तक खींचने और धारणा करने का ही भाव रहता है। आरम्भिक अभ्यासियों के लिए इतना ही पर्याप्त है।

हल्के और विश्रृंखलित श्वास-प्रश्वास से फेफड़ों तक के सारे हिस्से लाभान्वित नहीं हो पाते। इसीलिए जो लोग गहरे श्वास-प्रश्वास का पर्याप्त अभ्यास नहीं करते और न ही, सुदीर्घ श्वसन को प्रेरित करने वाला श्रम करते, वे शरीर के पोषण के लिए वाँछित पर्याप्त प्राण-शक्ति तक वायुमण्डल से नहीं खींच पाते और बीमार पड़ जाते हैं। इसलिए सुदीर्घ श्वास लेने योग्य परिश्रम करना, अथवा उसका नियमित अभ्यास करना स्वास्थ्य-लाभ एवं स्वास्थ्य-संरक्षण के लिए अनिवार्य है। यह शरीर-शक्ति की बात हुई।

मनःशक्ति के अभिवर्धन के लिए प्राण-प्रक्रिया को लय-तालयुक्त रखना आवश्यक है। प्रसन्नता, उत्फुल्लता, सरसता और स्फूर्ति की प्राप्ति का यही उपाय है। इसीलिए मनःशक्ति के विकास के आकाँक्षी व्यक्ति को लय-तालयुक्त श्वास-प्रक्रिया का अभ्यास अवश्य करना चाहिए। प्राणायाम की विशिष्टता भी उसके लय-तालबद्ध होने में ही है। सोऽहम् साधना प्राण-प्रक्रिया की इसी लय-तालबद्धता का विकसित रूप है। अनायास फूट पड़ने वाली गुनगुनाहट प्राणतत्व की इसी लय-ताल की हठात् अभिव्यक्ति है। साधकों और उत्कर्षशीलों को इस लय-तालबद्ध श्वास-प्रश्वास का सचेत अभ्यास करना चाहिए।

श्वास-प्रश्वास की स्वयं की सामान्य गति निश्चित कर ली जाय और प्रयास किया जाय कि अधिकाधिक समय इस गति में एकतानता, समस्वरता बनी रहे। आरम्भ यहीं से किया जाता है। आगे इस अभ्यास को सूक्ष्म, उच्चस्तरीय, श्रद्धासिक्त बनाया जाता है। जिसका सर्वोत्कृष्ट रूप है सोऽहम् की सहज-साधना। उस लक्ष्य की प्राप्ति तो बाद की बात है। किन्तु प्राणतत्व का अधिकाधिक लाभ लेना चाहने वालों को लय-तालयुक्त श्वास-प्रक्रिया का अभ्यास तो आरम्भ कर ही देना चाहिए।

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