योग : आत्मा का परमात्मा से मिलन

Dec 22,2022 | By Admin

योग : आत्मा का परमात्मा से मिलन

योग क्या है | What is Yoga

योग का शाब्दिक अर्थ है – जोड़, सम्बन्ध या मिलन| प्रत्येक व्यक्ति का किसी न किसी व्यक्ति, वस्तु, वौभव से योग होता ही है| पिता-पुत्र, पति-पत्नी का आपस में लौकिक सम्बन्ध भी एक योग ही होता है| जिस प्रकार अलग होने को  “वियोग” शब्द दिया जाता है इसी प्रकार मिलन को “योग” शब्द दिया जाता है| आत्मा का परमात्मा से मिलन ही योग है| योग संतुलित तरीके से एक व्यक्ति में निहित शक्ति में सुधार या उसका विकास करने का शास्त्र है। यह पूर्ण आत्मानुभूति पाने के लिए इच्छुक मनुष्यों के लिए साधन उपलब्ध कराता है। संस्कृत शब्द योग का शाब्दिक अर्थ ‘योग’ है। अतः योग को भगवान की सार्वभौमिक भावना के साथ व्यक्तिगत आत्मा को एकजुट करने के एक साधन के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। महर्षि पतंजलि के अनुसार, योग मन के संशोधनों का दमन है।

योग एक सार्वभौमिक व्यावहारिक अनुशासन | Yoga A Discipline 

योग अभ्यास और अनुप्रयोग तो संस्कृति, राष्ट्रीयता, नस्ल, जाति, पंथ, उम्र और शारीरिक अवस्था से परे, सार्वभौमिक है।यह न तो ग्रंथों को पढ़कर और न ही एक तपस्वी का वेश पहनकर एक सिद्ध योगी का स्थान प्राप्त किया जा सकता है। अभ्यास के बिना, कोई भी यौगिक तकनीकों की उपयोगिता का अनुभव नहीं कर सकता है और न ही उसकी अंतर्निहित क्षमता का एहसास कर सकते हैं। केवल नियमित अभ्यास (साधना) शरीर और मन में उनके उत्थान के लिए एक स्वरुप बनाते हैं। मन के प्रशिक्षण और सकल चेतना को परिष्कृत कर चेतना के उच्चतर स्तरों का अनुभव करने के लिए अभ्यासकर्ता में गहरी इच्छाशक्ति होनी चाहिए।

विकासोन्मुख प्रक्रिया के रूप में योग | Yoga A Process of Development in consciousness 

योग मानव चेतना के विकास में एक विकासवादी प्रक्रिया है। कुल चेतना का विकास किसी व्यक्ति विशेष में आवश्यक रूप से शुरू नहीं होता है बल्कि यह तभी शुरू होता है जब कोई इसे शुरू करना चुनता है। शराब और नशीली दवाओं के उपयोग, अत्यधिक काम करना, बहुत ज्यादा सेक्स और अन्य उत्तेजकों में लिप्त रहने से तरह-तरह के विस्मरण देखने को मिलते हैं, जो अचेतनावस्था की ओर ले जाता है।

भारतीय योगी उस बिंदु से शुरुआत करते हैं जहां पश्चिमी मनोविज्ञान का अंत होता है। यदि फ्रॉयड का मनोविज्ञान रोग का मनोविज्ञान है और माश्लो का मनोविज्ञान स्वस्थ व्यक्ति का मनोविज्ञान है तो भारतीय मनोविज्ञान आत्मज्ञान का मनोविज्ञान है। योग में, प्रश्न व्यक्ति के मनोविज्ञान का नहीं होता है बल्कि यह उच्च चेतना का होता है। वह मानसिक स्वास्थ्य का सवाल भी नहीं होता है, बल्कि वह आध्यात्मिक विकास का प्रश्न होता है|

आत्मा की चिकित्सा के रूप में योग | Yoga For Inner Healing 

योग के सभी रास्तों (जप, कर्म, भक्ति आदि) में दर्द का प्रभाव बाहर करने के लिए उपचार की संभावना होती है। लेकिन अंतिम लक्ष्य तक पहुँचने के लिए एक व्यक्ति को किसी ऐसे सिद्ध योगी से मार्गदर्शन की आवश्यकता होती है जो पहले से ही समान रास्ते पर चलकर परम लक्ष्य को प्राप्त कर चुका हों। अपनी योग्यता को ध्यान में रखते हुए या तो एक सक्षम काउंसलर की मदद से या एक सिद्ध योगी से परामर्श कर विशेष पथ बहुत सावधानी से चुना जाता है।

योग के प्रकार | Types of Yoga

कर्म योग | About Karma Yoga In Hindi

इसमें कर्म के द्वारा ईश्वर की प्राप्ति की जाती है । श्रीमद्भगवद्गीता में कर्मयोग को सर्वश्रेष्ठ माना गया है । गृहस्थ और कर्मठ व्यक्ति के लिए यह योग अधिक उपयुक्त है । हममें से प्रत्येक किसी न किसी कार्य में लगा हुआ है, पर हममें से अधिकांश अपनी शक्तियों का अधिकतर भाग व्यर्थ खो देते हैं, क्योंकि हम कर्म के रहस्य को नहीं जानते । जीवन की रक्षा के लिए, समाज की रक्षा के लिए, देश की रक्षा के लिए, विश्व की रक्षा के लिए कर्म करना आवश्यक है ।

किन्तु यह भी एक सत्य है कि दु:ख की उत्पत्ति कर्म से ही होती है । सारे दु:ख और कष्ट आसक्ति से उत्पन्न हुआ करते हैं । कोई व्यक्ति कर्म करना चाहता है, वह किसी मनुष्य की भलाई करना चाहता है और इस बात की भी प्रबल सम्भावना है कि उपकृत मनुष्य कृतघ्न निकलेगा और भलाई करने वाले के विरुद्ध कार्य करेगा । इस प्रकार सुकृत्य भी दु:ख देता है ।

फल यह होता है कि इस प्रकार की घटना मनुष्य को कर्म से दूर भगाती है । यह दु:ख या कष्ट का भय कर्म और शक्ति का बड़ा भाग नष्ट कर देता है । कर्मयोग सिखाता है कि कर्म के लिए कर्म करो, आसक्तिरहित होकर कर्म करो । कर्मयोगी इसीलिए कर्म करता है कि कर्म करना उसे अच्छा लगता है और इसके परे उसका कोई हेतु नहीं है । कर्मयोगी कर्म का त्याग नहीं करता वह केवल कर्मफल का त्याग करता है और कर्मजनित दु:खों से मुक्त हो जाता है ।

उसकी स्थिति इस संसार में एक दाता के समान है और वह कुछ पाने की कभी चिन्ता नहीं करता । वह जानता है कि वह दे रहा है, और बदले में कुछ माँगता नहीं और इसीलिए वह दु:ख के चंगुल में नहीं पड़ता । वह जानता है कि दु:ख का बन्धन ‘आसक्ति’ की प्रतिक्रिया का ही फल हुआ करता है ।

गीता में कहा गया है कि मन का समत्व भाव ही योग है जिसमें मनुष्य सुख-दु:ख, लाभ-हानि, जय-पराजय, संयोग-वियोग को समान भाव से चित्त में ग्रहण करता है । कर्म-फल का त्याग कर धर्मनिरपेक्ष कार्य का सम्पादन भी पूजा के समान हो जाता है । संसार का कोई कार्य ब्रह्म से अलग नहीं है । इसलिए कार्य की प्रकृति कोई भी हो निष्काम कर्म सदा ईश्वर को ही समर्पित हो जाता है । पुनर्जन्म का कारण वासनाओं या अतृप्त कामनाओं का संचय है । कर्मयोगी कर्मफल के चक्कर में ही नहीं पड़ता, अत: वासनाओं का संचय भी नहीं होता । इस प्रकार कर्मयोगी पुनर्जन्म के बन्धन से भी मुक्त हो जाता है ।

जो पुरुष मन से इंद्रियों को वश में रखकर अनासक्त भाव से सभी इंद्रियों को कर्मयोग (निष्काम कर्म) में लगाता है, वही श्रेष्ठ है। जीवन को आनंदमय करने का सरल उपाय है- संसार के प्रति अपनी आसक्ति को कम करते जाना। जब हम अनासक्त भाव से कार्य करते हैं तो वह कर्मयोग कहलाता है और आसक्ति से करते हैं तो वह कर्मभोग होता है। कर्मयोग में हम कर्म करते हुए अपनी चेतना से जुड़े रहते हैं। इसके लिए अपने मन में थोड़ा भाव बदलना होता है कि मेरे द्वारा किए गए सभी कार्य प्रभु की

सेवा है। मेरा अपना कोई स्वार्थ नहीं, जो कार्य सामने आता है, वह करता हूं! इंद्रियों से कार्य लेता हूं, मन में उसका चिंतन नहीं करता।

असल में इंद्रियों की विषयों से आसक्ति नहीं होती, इंद्रियां तो माध्यम है। आसक्ति तो मन से होती है और मन उसको पूरा करने के लिए इंद्रियों का सहारा लेता है। इंद्रियों को वश करने के लिए मन को काबू में किया जाता है। मन के नियंत्रण में होने से इंद्रियां स्वयं काबू में आ जाती हैं। जैसे शुगर की बीमारी में व्यक्ति मन से जीभ को काबू कर मीठा नहीं खाता, वैसे ही सभी इंद्रियों को मन से वश में कर लिया जाता है!

कर्मयोगी हर कर्म परमात्मा की याद में करता है| वह अपनी जिम्मेदारियों को सम्भालते हुए, घर-गृहस्थी में रहकर स्वयं के जीवन को कमल के फूल सदृश्य रखता है| जिस प्रकार कमल का फूल कीचड़ में रहते हुए भी न्यारा रहता है, इसी प्रकार राजयोगी प्रतिकूल वातावरण में रहते हुए भी न्यारा रहता है, इसी प्रकार राजयोगी प्रतिकूल वातावरण में रहते हुए भी अपने आपको उससे न्यारा रखकर हर कर्म को परमात्मा की याद करते हूए उसे श्रेष्ठ बनाता जाता है|

कर्म योग हमें फल की किसी भी इच्छा के बिना सभी कार्य करना सिखाता है| इस साधना में, योगी अपने कर्तव्य को दिव्य कार्य के रूप में समझता है और उसे पूरे मन से समर्पण के साथ करता है लेकिन दूसरी सभी इच्छाओं से बचता है।

ज्ञान योग | About Gyan Yoga In Hindi

ज्ञानयोग से तात्पर्य है :- ‘विशुद्ध आत्मस्वरूप का ज्ञान’ या ‘आत्मचैतन्य की अनुभूति’ है। इसे उपनिषदों में ब्रह्मानुभूति भी कहा गया है। ज्ञानयोग के सन्दर्भ उपनिषदों में मिलते हैं जहाँ स्पष्टता पूर्वक कहा गये है कि ज्ञान के विना मुक्ति संभव नहीं है –“ऋते ज्ञानन्न मुक्तिः”ज्ञान योग की व्याख्या उपनिषदों में की गयी है । इसीलिए इस योग के तीन ही सोपान/विधि हैं-(१)श्रवण (उपनिषदों में कही गयी बातों को सुनना या पढ़ना); (२) मनन (श्रवण किये गये मन्तव्य पर चिन्तन करना (३) निदिध्यासन (सभी वस्तुओं से अपना ध्यान हटाकर साक्षी पक्षी की तरह बन जाना) । इसके अन्तर्गत ब्रह्मवाक्यों श्रवण, मनन तथा निदिध्यासन को कहा गया है। ये ब्रह्म वाक्य प्रधान रूप से चार माने गये हैं –

स्वयं को तथा संसार को ब्रह्ममय समझने से ब्रह्म से एकत्व स्थापित हो जाता है । ज्ञानयोग के साहित्य में उपनिषत्, गीता, तथा आचार्य शंकर के अद्वैत परक ग्रन्थ तथा उन पर भाष्यपरक ग्रन्थ हैं। इन्हीं से ज्ञान योग की परम्परा दृढ़ होती है। आधुनिक युग में विवेकानन्द आदि विचारकों के विचार भी इसमें समाहित होते हैं। ज्ञानयोग दो शब्दों से मिलकर बना है – “ज्ञान” तथा “योग”। ज्ञान शब्द के कई अर्थ किये जाते हैं – लौकिक ज्ञान – वैदिक ज्ञान | साधारण ज्ञान एवं असाधारण ज्ञान | प्रत्यक्ष ज्ञान – परोक्ष ज्ञान |

किन्तु ज्ञानयोग में उपरोक्त मन्तव्यों से हटकर अर्थ सन्निहित किया गया है। ज्ञान शब्द की उत्पत्ति “ज्ञ” धातु से हुयी है, जिससे तात्पर्य है – जानना। इस जानने में केवल वस्तु के आकार प्रकार का ज्ञान समाहित नहीं है, वरन् उसके वास्तविक स्वरूप की अनुभूति भी समाहित है। इसप्रकार ज्ञानयोग में यही अर्थ मुख्य रूप से लिया गया है।

ज्ञानयोग जिस दार्शनिक आधार को अपने में समाहित करता है, वह है ब्रह्म (चैतन्य) ही मूल तत्त्व है उसी की अभिव्यक्ति परक समस्त सृष्टि है। इस प्रकार मूल स्वरूप का बोध होना अर्थात् ब्रह्म की अनूभूति होना ही वास्तविक अनुभूति या वास्तविक ज्ञान है। एवं इस अनुभूति को कराने वाला ज्ञानयोग है। विवेकानन्द ज्ञान योग को स्पष्ट करते हुये कहते हैं कि आत्मा ऐसा वृत्त है जिसकी परिधि सर्वत्र है परन्तु जिसका केन्द्र कहीं नहीं है और ब्रह्म ऐसा वृत्त है जिसकी परिधि कहीं नहीं है, परन्तु जिसका केन्द्र सर्वत्र है। यही ज्ञान यथार्थ ज्ञान है। ज्ञानयोग में ज्ञान से आशय अधोलिखित किये जाते हैं –

आत्मस्वरूप की अनुभूति, ब्रह्म की अनूभूति, सच्चिदानन्द की अनुभूति, विशुद्ध चैतन्य की अवस्था |

ज्ञानयोग की साधना यह है कि मस्तिष्कीय गति विधियों पर-विचार धाराओं पर विवेक का आधिपत्य स्थापित किया जाय। चाहे जो कुछ सोचने की छूट न हो। चाहे जिस स्तर की चिन्तन प्रक्रिया अपनाने न दी जाय। औचित्य-केवल औचित्य-मात्र औचित्य-ही चिन्??

Tags : Mantra

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