अष्टांग योग & Ashtanga Yoga of Patanjali
Ashtanga Yoga in Hindi- महर्षि पंतजलि ने आत्मा को परमात्मा से जोड़ने की क्रिया को आठ भागों में बांटा। यही क्रिया अष्टांग योग (patanjali ashtanga yoga) के नाम से प्रसिद्ध है। आत्मा में बेहद बिखराव (विक्षेप) है जिसके कारण वह परमात्मा, जो आत्मा में भी व्याप्त है, की अनुभूति नहीं कर पाता।
योग के आठों अंगों (8 Limbs of Yoga) का ध्येय आत्मा के विक्षेपों को दूर करना ही है। परमात्मा को प्राप्त करने का अष्टांग योग से अन्य कोई मार्ग नहीं। अष्टांग योग के पहले दो अंग-यम और नियम हमारे संसारिक व्यवहार में सिद्धान्तिक एकरूपता लाते हैं। अन्य छ: अंग आत्मा के अन्य विक्षेपों को दूर करते हैं।
महर्षि पंतजलि द्वारा वर्णित योग (ashtanga yoga of patanjali) के आठ अंगो के क्रम का भी अत्यन्त महत्त्व है। हर अंग आत्मा के विशिष्ट (खास तरह के) विक्षेपों को दूर करता है परन्तु तभी, जब उसके पहले के अंग सिद्ध कर लिए गए हों। उदाहरणार्थ यम और नियम को सिद्ध किए बगैर आसन को सिद्ध नहीं किया जा सकता।
सभी मतवाले इस बात को मानते हैं कि असत्य, हिंसा आदि (सत्य, अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्राचर्य और अपरिग्रह, अष्टांग योग के पहले अंग-यम के विभाग हैं) की राह पर चलने वाले ईश्वर को कभी नहीं पास करते। यह इस बात की पुष्टि ही है कि र्इश्वर को पाने का अष्टांग योग एक मात्र रास्ता है। नीचे योग के भिन्न-भिन्न अंगो के अर्थों को बताने का प्रयास किया गया है-
अष्टांग योग का पहला अंग – यम
यम के पांच विभाग है
1.अहिंसा 2. सत्य 3. अस्तेय 4. ब्रह्राचर्य 5. अपरिग्रह
1. अहिंसा
लोक में यह मान्यता है कि किसी को कष्ट, पीड़ा व दु:ख देना हिंसा है। इसके विपरीत अहिंसा है। इस मान्यता को स्वीकार किया जाये, तो संसार में ऐसा कोई व्यक्ति नहीं है, जो अन्यों को कष्ट नहीं देता है। माता, पिता, गुरू, समाज, राष्ट्र व सभी प्राणी एक दूसरे को कष्ट देते हैं। र्इश्वर कर्मफल प्रदाता होने से संसार में सर्वाधिक कष्ट देता है। क्या इससे र्इश्वर हिंसक हो जाता है ? ved में र्इश्वर को पूर्ण अहिंसक स्वीकारा है। माता-पिता, शिक्षक, अधिकारी आदि सुधारने के लिए हमारी त्रुटियों का दण्ड देते हुए हमें कष्ट देते हैं, क्या उनका यह कर्म हिंसा हो जायेगा ?
वेद व ऋषियों का मन्तव्य यही कहता है कि, हिंसा व अहिंसा अन्याय व न्याय पर खड़ी है। न्याय पूर्वक दण्ड-कष्ट देना भी अहिंसा है व अन्याय पूर्वक पुरस्कार-सुख देना भी हिंसा है। हिंसक प्रवृति वाले मनुष्य अपनी आत्मग्लानि, असन्तोष, अतृपृत, भय आदि को दबाने के लिए आत्मा को प्रसन्न करने का प्रयास करते रहते हैं।
उनका यह प्रयास यह भी प्रकट करता है कि उनकी आत्मा में छुपा डर उनको बार-बार प्रेरित करता है कुछ दान-पुण्य करो, जिससे हिंसा से मिलने वाले भयंकर दण्ड में कुछ कमी हो जाए। इसी कारण वे हिंसक व्यक्ति मंदिरों में, ब्राह्राणों में, आश्रमों में, मठों में तरह-तरह का दान कर के कुछ राहत की सांस लेते हैं। पर वे यह नहीं जान पाते हैं कि किया हुआ पाप कभी कम नहीं होता, चाहे कितना ही पुण्य करो। पुण्य का फल पुण्य व पाप का फल पाप के रूप में ही मिलता है।
वेद, वेदानुकूल ऋषियों की मान्यता यह संदेश देती है कि जितने भी गलत कार्य हैं उन सब का मूल हिंसा ही है और जितने भी उत्तम कार्य हैं उन सबका मूल अहिंसा ही है। सत्य आदि बाकि चारों यम व शौच आदि पांचों नियम अहिंसा पर ही आधारित हैं। अहिंसा को पुष्ट करना ही उनका मुख्य लक्ष्य है। अहिंसा की सिद्धि के लिए उनका आचरण किया जाता है।
यहां एक महत्त्वपूर्ण तथ्य जिसके विषय में आज समाज में भ्रान्तिपूर्ण माहौल है पर प्रकाश डालना आवश्यक है। स्वयं हिंसा न कर दूसरों द्वारा हिंसा किए जाने को मूक द्रष्टा बन देखते रहना भी हिंसा ही है। हिंसा का मूल ‘अन्याय’ है। दूसरो पर होते अन्याय का उचित प्रतिरोध न करना हिंसा का समर्थन करना ही है। इसलिए यह आवश्यक है कि अहिंसा का व्रत लेने वाला व्यक्ति स्वंय हिंसा न करने के साथ-साथ दूसरों द्वारा हिंसा किए जाने के विरोध में आवाज़ भी उठाए। हाँ, इसका दूसरों द्वारा हिंसा किए जाने के विरोध में आवाज़ उठाना उतना ही सार्थक होगा जितना वह स्वंय दूसरों के प्रति हिंसा नहीं करता होगा।
हमें विचारना चाहिये कि इतनी योनियों में ये अगणित प्राणी जो कष्ट भोग रहे हैं इसका कारण क्या है ? तब हमें पता चलेगा कि हिंसा क्या है ? और अहिंसा क्या है ? यह अहिंसा है जिसके कारण हम उत्तम योनि में आकर सुख भोग रहे हैं। यह हिंसा है जिसके कारण अनेकों निकृष्ट योनियों में पड़े असंख्य जीव दारूण दु:ख भोग रहे हैं।
2. सत्य
जो चीज़ जैसी है उसे वैसा ही जानना व मानना सत्य कहलाता है। उदाहरण के तौर पर सांप को सांप जानना व मानना सत्य कहलाएगा और सांप को रस्सी जानना व अन्यथा रस्सी को सांप जानना असत्य कहलाता है। साधरणतया यह कहा जाता है कि जिस झूठ से किसी का भला होता हो उसे बोलना कोर्इ गलत नहीं। यह ठीक नहीं। हमें सदा अपनी वाणी से ठीक वैसी ही बात करनी चाहिए जैसी कि हमारी आत्मा में किसी घटना अथवा वस्तु
के बारे में जानकारी हो। इस बात को एक उदाहरण की मदद से समझाने का प्रयत्न करते हैं। मान लीजिए कि आपने एक आदमी को कुछ व्यक्तियों से, जो उस आदमी को मारना चाहते हैं, बच के एक घर में घुसते हुए देख लिया है। अब हो सके तो आपको उस जगह से हट जाना चाहिए ताकि वे व्यक्ति आपसे किसी तरह की पूछताछ न कर सकें। यदि आप उस जगह से नहीं हट सके और व्यक्तियों द्वारा उस आदमी के बारे में पूछने पर आपने सच बता दिया तो वह आदमी मारा जाएगा। ऐसी अवस्था में आपका सच बोलना उस आदमी के वास्तव में अपराधी होने पर पुरस्कार का हकदार होगा अन्यथा दण्डनीय होगा।
आपका झूठ बोलना शायद उस आदमी को बचा दे (हमारा झूठ किसी प्राणी को तत्कालिक एक क्षण में, एक घंटे में, एक दिन में, एक वर्ष में या ज़्यादा से ज़्यादा एक जन्म में लाभ तो पहुँचा सकता है, परन्तु उसका अन्तिम फल उस प्राणी के लिए हानिकारक ही होता है। इसलिए क्योंकि हमारा झूठ बोलना, संबंधित प्राणियों के लिए अन्तत: हानिकारक ही होता है, हमें सत्य ही बोलना चाहिए।), परन्तु यदि वह आदमी वास्तव में अपराधी हुआ तो आपका झूठ बोलना दो तरह से दण्डनीय होगा आपके दण्डनीय होने का पहला कारण तो होगा आपका झूठ बोलना व दूसरा कारण होगा एक अपराधी को बचाना। ऐसी परिस्थित में निम्न व्यवहार आपको उचित होगा –
विशेष परिस्थितियों में (विशेष परिस्थितियों के होने का निर्णय प्रत्येक का आत्मा करता है) यदि किसी वस्तु को यज्ञ भावना से वाणी से भाषित किया जाता है तो वह अक्षरक्ष: सत्य न होने पर भी सत्य भाषण ही है। यज्ञ भावना क्या है ? संक्षेप में कहा जाए तो जो कर्म अन्याय के विरोध में सृष्टि के कल्याणार्थ किए जाते हैं वे कर्म यज्ञ भावना से ओत-प्रोत माने जाते हैं।
कहा गया है – सत्य बोलो प्रिय बोलो। ऐसा बहुत कम होता है कि कोर्इ विषय सत्य भी हो और अप्रिय भी न हो। ऐसे समय में स्वयं का आत्मा ही निर्णायक होता है कि अप्रिय सत्य को बोला जाए या ना। हां, यदि किसी को प्रिय रूप में बोला सत्य भी कठोर लगता है तो यह उसका दोष है। कुछ विद्वान ऐसा भी मानते हैं कि अपवाद स्वरूप झूठ भी बोला जा सकता है परन्तु यह नितान्त आवश्यक है कि झूठ बोलने वाले की मनोवृति सात्विक हो।
इस बात का कि अपवाद रूप में किसी की भलार्इ के लिए झूठ बोल लेना चाहिए, सहारा लेकर हम साधारण परिस्थितियों में भी अपने आप को झूठ बोलने से नहीं रोक पाते। साधारण परिस्थितियों में हमें सत्य ही बोलना चाहिए। राष्ट्र हित व विश्व हित के मामलों को ही केवल असाधारण परिस्थितियां माना जाना चाहिए।
सत्य दो प्रकार के होते हैं। संसारिक वस्तुओं में समयानुसार व परिस्थितिवश बदलाव आता रहता है। उदाहरणार्थ आज बनी गाड़ी, बीस वर्ष पश्चात समान नहीं रहेगी। गाड़ी को आज जानना, उसे बीस वर्षों के पश्चात जानने के समान नही हो सकता। हम पहले कह आए हैं कि जो जैसा है उसे वैसा ही जानना व मानना सत्य कहलाता है।
इस अनुसार गाड़ी के आज के सत्य ज्ञान व बीस वर्ष पश्चात के सत्य ज्ञान में फर्क होना स्वभाविक हैं दूसरा सत्य वह होता है जिसमें समयानुसार व परस्थितिवश अन्तर नहीं आता। ईश्वर विषयक ज्ञान इसी श्रेणी में आता है। जो सत्य ज्ञान कभी नहीं बदलता उसे ऋत कहा जाता है। हमारे जीवन का ध्येय होना चाहिए कि हमारी आत्मा में अवस्थित सत्य ऋत के समीप होता जाए। जो चीज़ जैसी है उसे वैसी ही जानने के लिए महर्षि दयानन्द जी ने निम्नलिखित मापदंड सुझाए हैं –
वह वस्तु अथवा घटना ईश्वर के गुणों के अनुकूल होनी चाहिए। उदाहरणार्थ क्योंकि किसी व्यक्ति को बगैर उसके अन्याय के दोषी होने के मार दिया जाना ईश्वर के गुण न्यायकारिता व दयालुता के विरूद्ध है तो इसे उचित नहीं ठहराया जा सकता।
यदि किसी परिस्थिति में यह मापदंड न प्रयोग किया जा सकता हो तो हमें दूसरी कसौटी इस्तेमाल करनी होगी।
वह वस्तु अथवा घटना सृष्टि नियमों के विरूद्ध नहीं होना चाहिए। उदाहरणार्थ यह मानना कि किसी शरीरधारी का शरीर मृत्यु को प्राप्त नहीं होता सृष्टि नियमों के विरूद्ध होने से असत्य है।
यदि किसी परिस्थिति में उपरोक्त दोनों माप दंड प्रयोग न किए जा सकते हों तो हमें तीसरी कसौटी इस्तेमाल करनी चाहिए।
हमें आप्तपुरूषों (आप्तपुरूष वे हैं जिनका व्यवहार वेदोक्त हो) के वचनों को प्रमाण के रूप में मानते हुए सत्य का निर्धारण करना चाहिए।
यदि किसी परिस्थिति में उपरोक्त तीनों मापदंड प्रयोग न किए जा सकते हों तो हमें चौथी कसौटी इस्तेमाल करनी चाहिए।
विद्वान लोग बैठकर किसी वस्तु अथवा घटना की सत्यता व असत्यता पर विचार करें। तदुपरान्त अन्य लोग विद्वान लोगों के वचनो को मानें।
यदि किसी परिस्थिति में उपरोक्त चारों माप दंड प्रयोग न किए जा सकते हों तो हमें पाचंवी व अन्तिम कसौटी इस्तेमाल करनी चाहिए।
किसी वस्तु अथवा घटना की सत्यता व असत्यता पर जो निर्णय प्रत्येक की आत्मा का हो, उसे स्वीकारें।
थोड़ा इतिहास के पृष्ठों को पलट कर देखा जाये। क्या किसी ने झूठ बोलकर अपने जीवन के परम उद्देश्य मोक्ष को प्राप्त किया है ? यदि ऐसा नहीं हुआ है, तो आज और कल भी नहीं होगा।
हमारा सत्य को अपने जीवन में धारण न कर पाने का बहुत बड़ा कारण यह है कि हमने अपने जीवन का लक्ष्य जड़-पदार्थों को प्राप्त करना बनाया है। भौतिक पदार्थों की प्राप्ति को वास्तविक लाभ समझ कर भौतिक पदार्थों को प्राप्त करने पर भी आत्मतृप्ति नहीं मिल रही है, यह बात भौतिक पदार्थों के स्वामी अंदर से स्वीकार करते हैं। हमें उनके अनुभव का तिरस्कार नहीं करना चाहिए।
वर्तमान में सत्याचरण करने से हानि अधिक दिखार्इ देती है। इसके पीछे कारण है-भौतिक पदार्थों की हानि को अपनी आत्मा की हानि समझना।
झूठ बोलने वाला कभी भी निडर नहीं हो सकता। हम डरते हुए कभी भी एकाग्र नहीं हो सकते। अत: झूठ बोलने या मिथ्या आचरण करने वाला व्यक्ति पूर्ण एकाग्र नहीं बन सकता। हम पूर्ण एकाग्रता के बिना पूर्ण बुद्धिमान नहीं बन सकते हैं।
सत्य का पालन अहिंसा की सिद्धि के लिए ही किया जाता है। झूठ बोलने से भी हिंसा होती है। कैसे ? ‘हिंसा का अर्थ है-अन्याय पूर्वक पीड़ा, दु:ख, कष्ट देना। जब बालक माँ से झूठ बोलता है तो माँ को इससे अतीव कष्ट होता है। आप दुकानदार हैं तो ग्राहक को झूठ बोलकर पीड़ा पहुँचा रहे हो। आप नौकरी के प्रत्याशी हैं, आपने झूठ बोल कर नौकरी ली तो जिसे नौकरी मिलनी थी, आपके कारण वह वंचित हो गया है, उसे वंचित होने पर दु:ख मिला, यह हिंसा है।
जहाँ भी हम झूठ बोलतें हैं निश्चित रूप से हम वहाँ पर हिंसा ही कर रहे हैं। वहाँ अन्याय पूर्वक दूसरों को दु:ख देते हैं। जिसे हम हिंसा द्वारा पीड़ा पहुँचा रहे हैं, उसका फल हमें निश्चित रूप से मिलने वाला है। इस से हम छूट नहीं सकते। इसीलिये ऋषि कहते हैं कि सत्य ऐसी एक शक्ति है जिसे अपनाने पर मनुष्य को आगे होने वाले पापों को छूटने की शक्ति प्राप्त होती है। इसके अतिरिक्त और कोर्इ मार्ग नहीं है।
ऐसा कोइ व्यक्ति न अतीत में था, न ही वर्तमान में है और न ही संभवत: भविष्य में होगा जिसे सत्य में अश्रद्धा हो व असत्य में श्रद्धा हो। ऐसा इसलिये है क्योंकि परमेश्वर ने प्रारम्भ से ही मनुष्य के अन्त: करण में असत्य के प्रति अश्रद्धा उत्पन्न कर दी है।
जब व्यक्ति अपने आत्मा को मार कर कोर्इ बात नहीं कहता वरन् प्रसन्नता पूर्वक एवं आत्म-विश्वास के साथ कहता है, तब वह सत्य-बोल बोलता है। झूठ बोलने वाले व्यक्ति का आत्मा मृत प्राय: अर्थात अंधकार में डूबा होता है।
सत्य के धारण करने से भले ही कुछ भी चला जाये, परन्तु आत्मा का कल्याण इसी में है। जिस माँ के लिए झूठ बोलते हैं, वह तो एक दिन जायेगी ही। पिछले जन्मों म
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